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________________ ७०२ प्रश्नों के उत्तर mirmirminition अनेकों परिवर्तनाते गए। आज मूर्ति-पूजक श्वेताम्बरं परम्परा में मूर्ति-पूजन की जो रूपरेखा उपलब्ध होती है सथा अाज इस परम्परा के मन्दिरों में चढ़े चढ़ावे का जो प्रयोग होता है, यह उस : समय की दृष्टि से अाज विल्कुल बदला हुआ है। - हाथ में लकड़ी रखना, घरों के बाहिर ही उच्च स्वर से "धर्म-लाम' की आवाज़ लगाना, तथा तीर्थंकरों की मूर्तियों की पूजा । करना, इन परिवर्तनों के साथ-साथ दुष्काल-पीड़ित जैन साधुओं ने एक और विशेष परिवर्तन किया, वह था-मुखवस्त्रिका को सदा ..' मुख पर न बांधना। व्याख्यान देने के समय तथा शास्त्रों के . ... अध्ययन और अध्यापन के समय ही ये लोग मुखवस्त्रिका को मुख : पर बांधते थे, इन कार्यो के हो जाने पर मुखवस्त्रिका भी मुख से : उतार देते थे। इस प्रकार हर समय मुखवस्त्रिका का मुख पर । प्रयोग करना इन्होंने छोड़ दिया । यह परिवर्तन भी आगे चलकर .... इस रूप में स्थिर न रह सका । इस में भी परिवर्तन लाया गया। ... व्याख्यान आदि के समय जो मुखस्त्रिका मुख पर बांधी जाती : .. थी, उसे हाथ में रखना आरम्भ कर दिया । मुखवस्त्रिका के डोरे . :: का सदा के लिए परित्याग कर दिया गया । केवल बोलने के समय या शास्त्र देते समय मुख को एक वस्त्र-खण्ड से ढकना - ~-~~-~~~-rrrrr-~~-~~~-~~-~~-...... .......... .......rrmirmire xतेरहपन्थ का जब निर्माण हुआ था। उस समय तेरह साधु, तेरह : . . . ही श्रावक थे,इसीलिए इस पन्थ का नाम 'तेरहपन्थ' रखा था। किन्तु प्राज.. ... इस में परिवर्तन कर दिया गया है। आज तेरहपन्थ के स्थान पर - "तेरापन्थ" यह शब्द प्रयुक्त होता है और इस का अथं किया जाता है-हे .. ... प्रभो ! यह तेरा ही पन्थ है। भाव यह है कि समय के साथ परिवर्तन होते : . रहते हैं।
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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