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________________ त्रयोदश अध्याय शिक्षित जैन होगा जो उसे न जानता होगा । भगवान पार्श्वनाथ का समय ईसा से क़रीब ८५० वर्ष पूर्व का माना गया है। वह युग तापसों का युग माना जाता था | हज़ारों तापस आश्रम बनाकर वनों में रहा करते थे। और शरीर को अधिक से + अधिक कष्ट देना ही उन की साधना का प्रधान लक्ष्य था । कितने हो तपस्वी वृक्षों की शाखाओं में श्रीधे मुंह लटका करते थे, कितने ही ग्राकण्ठ जल में खड़े होकर सूर्य की ओर मुंह करके ध्यान लगाया करते थे, कितने ही अपने को भूमि में दबा कर समाधि लगाया करते थे और कितने ही पश्चाग्नि तप करके शरीर को झुलसा डालते थे । इस प्रकार तापसों की देह - दण्ड- रूप साधना विभिन्न रूप से उस समय चल रही थी । भोली जनता इन्हीं विवेकशून्य क्रियाकाण्डों में धर्म मान कर चल रही थी और उस का विश्वास वन गया था कि आत्मोत्थान तथा ग्रात्म-कल्याण का इस से बढ़कर कोई अन्य साधन नहीं है । ६३१. ''. + भगवान पार्श्वनाथ का संघर्ष अधिकतर इन्हीं तापस-सम्प्रदायों के साथ हुआ था । भगवान इस विवेक--शून्य क्रिया- काण्ड को हेय मानते थे और कहते थे कि प्रत्येक अनुष्ठान ज्ञान पूर्वक ही करना चाहिए | ज्ञान-पूर्वक किया गया मामूली सा क्रिया काण्ड : भी जीवन में उत्क्रान्ति ला सकता है और ज्ञान के विना उग्रक्रिया - काण्ड करते हुए हजारों वर्ष भी व्यतीत हो जाएं तब भी उस से पल्ले कुछ नहीं पड़ सकता । भगवान का विश्वास था कि एक व्यक्ति यदि अज्ञानता के साथ महीनें महीने कुशाग्र भोजन का आसेवन करता है । अर्थात् एक मास के अनशन के अनन्तर आहार का ग्रहण करता है, और वह भी कुशा के अग्रभाग जितना भोजन लेता है । तथा दूसरी श्रोर एक व्यक्ति दो घड़ी का प्रत्याख्यान
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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