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________________ त्रयोदश अध्याय ६०३ में होते हैं । उत्सर्पिणी और श्रवसर्पिणी का जब तीसरा आरा चालू होता है, तब भारत वर्ष आदि क्षेत्रों में तीर्थंकर होने प्रारम्भ हो जाते हैं और जब इन का चौथा चारा समाप्ति पर होता है, तब उक्त क्षेत्रों में तीर्थंकरों का भी प्रभाव हो जाता है । वैसे पांच महाविदेह * क्षेत्रों में २० तीर्थंकर सदा विद्यमान रहते हैं, जिन्हें जैन जगत में २० विहरमारण कहा जाता है । - . 1. इसके प्रतिरक्ति प्रकृति का यह ग्रटल नियम है कि जब प्रत्याचार अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाता है, अधर्म धर्म का वाना पहन कर जनता को बन्धन में बांध लेता है, सर्वत्र प्रधार्मिकता तथा पापाचार का भीषण दानव अपना साम्राज्य स्थापित कर लेता है, तब कोई न कोई महापुरुष समाज, राष्ट्र तथा विश्व का उद्धार करने के लिए जन्म लेता है । जन्म लेकर समाज तथा राष्ट्र की तात्कालिक दूषित स्थितियों का सुधार करता है, तात्कालिक धार्मिक तथा सामाजिक भ्रांत रूढ़ियों को समाप्त करके मानवजगत की दलित मानवता को जीवन-दान देता है । श्रहिंसा, संयम और तप की त्रिवेणी को जन-गरण में प्रवाहित करता है । जैन दर्शन की दृष्टि में वह महापुरुष तीर्थंकर का ही जीता-जागता स्वरूप होता है । जैन दर्शन और वैदिक दर्शन में यहीं अन्तर है कि जैन दर्शन उसे ईश्वर का अवतार नहीं कहता है, और उसे शुद्धि 3 .. . + जम्बू द्वीप में एक महाविदेह, धातकी-खण्ड में दो, और अर्धपुष्कर द्वीप में दो, इस प्रकार सब मिला कर पांच महाविदेह होते हैं । इन पांचों में तीर्थंकर सदा विराजमान रहते हैं। जम्बूद्वीप आदि भूखण्डों का विवरण प्रस्तुत पुस्तक के 'लोक-स्वरूप' इस अध्याय में दिया गया है । पाठक उसे देखने का कष्ट करें।
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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