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________________ त्रयोदश अध्याय ६०१ था कि मैं तो अभी ज्ञान सागर के किनारे खड़ा हूं, अभी तो मेरे हाथ सिप्पियां लगी हैं। मोती तो मैंने चुनने हैं । भाव यह है कि मनुष्य का ज्ञान अभी बहुत अधूरा है; और पूर्णता प्राप्त किए बिना किसी तथ्य को असम्भव नहीं कह देना चाहिए । प्रश्न - क्या तीर्थंकर ईश्वरीय अवतार होते हैं ? उत्तर - जैन दर्शन अवतारवादी दर्शन नहीं है । भगवान् अवतार लेता है, और वह यथा समय त्रस्त संसार पर दया लाकर वैकुण्ठ धाम से संसार में चला आता है, किसी के यहां जन्म लेता . है और अपनी लीला दिखा कर वापिस वैकुण्ठधाम में लौट जाता है । ऐसी मान्यता जैन दर्शन की नहीं है। अतः तीर्थंकर परमात्मा का अवतार रूप नहीं होते । बल्कि संसारी जीवों में से ही कोई जीव प्राध्यात्मिक उन्नति एवं प्रगति करता हुआ इतना ऊंचा उठ जाता है कि अन्त में एक दिन वह तीर्थंकर पद पा लेता है । अतः तीर्थंकर को ईश्वर का अवतार नहीं समझना चाहिए । प्रश्न - तीर्थंकरों में और अवतारों में क्या अन्तर है ? उत्तर- ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देव कारणवश जो विविध रूप धारण करते हैं, वैदिक परम्परा में वे अवतार कहलाते हैं । जैसे ब्रह्मा ने चन्द्रमा का, विष्णु ने राम, कृष्ण का, और महादेव ने दुर्वासा ऋषि का ग्रवतार लिया था । परन्तु जैन तीर्थंकर किसी देव विशेष के अवतार नहीं होते । जो भी जीव पवित्र अहिंसा, संयम, तपस्या द्वारा तीर्थंकर बनने के योग्य बन जाते हैं, वे मनुष्य रूप से पैदा होकर युवावस्था में जैन दीक्षा लेते हैं, साधु बनते हैं, अखण्ड धर्म-साधना द्वारा केवल ज्ञानी बन कर साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका इस चतुर्विध संघ की स्थापना करने के अनन्तर तीर्थंकर 1 + •
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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