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________________ द्वादश अध्याय: rawxx~~~~~ सब जीवों के हित को लिए हुए है । वह किसी प्राणी को आघात नहीं पहुंचाता. और रोटी आदि बनाने में छ: काय के जीवों की हिंसा अनिवार्यतः होती है और यह साधु के लिए उपयुक्त नहीं है । अत: वह स्वयं भोजन बनाने के कार्य में नहीं लगता। परन्तु उसे भी अपने पेट को तो भरना ही पड़ता है। पेट भरे विना वह साधना के पथ को भली-भांति तय नहीं कर पाता। इसलिए उसे अपनी आवश्यकतानुसार भिक्षा कर के भोजन लाने का शास्त्रकारो ने आदेश दिया हैजिसे जैन परिभाषा में गोचरी कहते हैं। भिक्षा एवं भीख दोनों मांग कर ली जाती हैं : घर-घर घूम कर प्राप्त की जाती हैं। फिर भी दोनों एक नहीं, भिन्न हैं, दोनों में रात दिन का अन्तर रहा हया है। भीख दीनता को परिचायक है। उस में ... मांगने वाले का व्यक्तित्व बिल्कुल गिर जाता है । वह घर-घर खुशामद . की भाषा में मांगता है, हजारों आर्शीवादों की बौछारें करता हुआ दीन एवं करुण स्वर में रोटी की याचना करता है। परन्तु भिक्षु ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं करता । जैन साधु के लिए दशवैकालिक, प्राचा- . ' रांग आदि आगमों में यह स्पष्ट आदेश दिया गया है कि वह रकभिखारो की तरह दीन स्वर में याचना न करे, न अपने कुल, वंश . एवं परिवार का परिचय दे कर आहार प्राप्त करे और भोजन लेने के लिए गृहस्थ की प्रशंसा भी न करे तथा न आर्शीवादों को ही वर्षा करे। वह सहज भाव से गृहस्य के घर में प्रवेश करे और शास्त्र में बताई गई विधि के अनुरूप जैसा भी निर्दोष आहार उपलब्ध हो उस. . में से थोड़ा-सा आहार ग्रहण करे- जिस से गृहस्थ को न तो पुनः प्रारंभ करना पड़े या कमी का अनुभव करना पड़े । . इस से यह ... स्पष्ट हो गया कि भिक्षा एवं भीख में बहुत बड़ा अन्तर है । भीखमंगा.
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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