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________________ ૩૫૭ द्वादश अध्याय त्याग करने वाले को साधु कहा है । कालिक सूत्र में स्पष्ट शब्दों में कहा है- जो गुड़, घी श्रादि पदार्थों का रात को घोड़ा भी संग्रह करके रखता है, वह साधु नहीं गृहस्थ है । यदि कभी संवर्ष हो गया तो साबु को चाहिए कि तुरन्त उसे उपशांत करके क्षमा-याचना कर ले. विना क्षमा-याचना किए या दोष का परिहार किए बिना उसे पाहार नहीं करना चाहिए। वह ग्रालोचना या क्षमायाचना किए बिना ही प्राहार- पानी करता है तो उसे दोपो माना है और एक पक्ष के बाद भी वह उस शल्य की निकाल कर हृदय को साफ नहीं करता है तो उसे छठे गुणस्थान का अधिकारी नहीं माना है। इस तरह द्रव्य से पदार्थों का और भाव से कपायों का संग्रह करके रखने वाला व्यक्ति साधु नहीं हो सकता । उसका सर्वथा त्यागी हो साधु कहलाता है । * प्रवृत्ति - निवृत्ति वह मनुष्य को प्रत्येक कार्य प्रश्न- जैनधर्म निवृत्ति परक है । से निवृत्त होना सिखाता है, ऐसी स्थिति में साधु जीवन निर्वाह कैसे कर सकेगा ? उत्तर- जैनधर्मन एकांत निवृत्तिवादी है और न एकांत प्रवृत्तिवादी । वह निवृत्तिः प्रवृत्तिवादी है । राग-द्वेष यादि दोपों से निवृत्त होना तथा सद्गुणों में प्रवृत्ति करना यह जैन आगमों का आदेश रहा है । इसके लिए जैनागमों में समिति और गुप्ति दो शब्द मिलते हैं। गुप्ति का अर्थ है योगों-मन, वचन श्रोर शरीर को सावध प्रवृत्ति से रोकना और समिति का अर्थ है उन्हें संयम साधना में प्रवृत्त करना लगाना । * बृहत् कल्पसूत्र
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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