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________________ __५४९ .......... द्वादश अध्याय ..mome :: उत्तीर्ण होने के लिए अपने को पूर्णतया सहिष्ण बनाए रखता है । यदि अपने को सहिष्ण बनाना और कष्टों को सहर्ष सहन करना भी हिंसा कृत्य मान लिया जाए. तब तो असिधारा व्रत ब्रह्मचर्य का परिपालन भी हिंसा-कृत्य स्वीकार करना पड़ेगा । ब्रह्मचर्य के अतिरिक्त अहिंसा सस्य आदि अन्य सभी साधनाओं में मन को मारना पड़ता है, अनेक विध संकटों का सामना करना पड़ता है। तब ये सभी साधनाएं हिंसा में परिगणित करनी पडेंगी। पर वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। वस्तु तो प्रात्म-शुद्धि तथा प्रात्म-कल्याण के महापथ पर बढ़ते हुए. साधक को : जिन कष्टों का सामना करना पड़ता है, उन को साधना का रूप देतो. है। अंत: लोच करना हिंसा नहीं है। प्रत्युत जीवन-निर्मात्री अहिंसा का ही एक रूपान्तर है। .. ..... ... ... प्रज्ञापना सूत्र के २२३ क्रिया पद में प्राचार्य मलयगिरि ने इस • संबंध में बहुत सुन्दर ऊहापोह किया है । वहां लिखा है-. .... पारितापनिकी क्रिया के तीन भेद होते हैं-स्वपारितापनिकी, पर": पारितापनिकी और उभयपारितापनिकी । स्वयं को पीड़ित करना स्वपारि तापनिकी,दूसरों को पीड़ित करना परतापनिकी और दोनों को पीड़ित करना उभयपारितापनिकी क्रिया कहलाती है। .:::. : .. . - यहां प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि दुःख देने से क्रिया लगती ' है,तो स्वयं लोच करने पर स्वपारितापनिकी, दूसरे की लोच करने से परतापनिको, और परस्पर एक दूसरे की लोच करने पर उभयपारि... तापनिकी क्रिया लगनी चाहिए। क्योंकि इससे दुःखोत्पत्ति होती है। इसका समाधान निम्नोक्त है......... दुष्ट बुद्धि से दिया गया दुःख पारितापनिको क्रिया का कारण बना करता है, किन्तु जिस दुःख के पीछे सद्भावना हो और जिस का . . . .
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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