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________________ ५३७ एकादश अध्याय ५- मात्सर्य भाव से दान देना । उपसंहार • श्रावक के ऊपर दोहरा उत्तरदायित्व है एक श्रागन्तुक साधना का और दूसरा पारिवारिक जीवन चलाने का । अतः उसे साधु से भी अधिक सावधानी बरतनी होती है । उसे सदा जागरूक होकर चलना होता है और कभी कभी उसे सहिष्णु एवं तपस्वी वनना होता है । इसी त्याग - वैराग्य की महान भावना को सामने रख कर कहा गया. है— कोई कोई गृहस्थ साधु से भी उत्कृष्ट साधना करने वाला है $ | यह सत्य है कि उसकी साधना देशतः है और भावना सर्वतः की ओर होने से श्रावक जीवन भी महत्त्वपूर्ण माना गया है । श्रावक के मूल व्रत पांच ही हैं, जिन्हें अणुव्रत कहते हैं । शेष तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत उत्तर व्रत हैं अर्थात् मूल व्रतों के परिपोषक हैं । अतः उनका मूल्य मूल व्रतों के ऊपर आधारिल है । क्योंकि विना मूल के कोई भी वृक्ष पर स्थित नहीं रह सकता और न पुष्पित एवं फलित हो सकता है। अस्तु साधना के पथ पर गति शील व्यक्ति को मूल व्रतों का अधिक जागरूकता से परिपालत करना चाहिए और उनमें अभिवृद्धि करने के लिए तथा अपनी आवश्यकताओं और काम-वासनाओं को कम करने के लिए तथा सदा के लिए नहीं तो कम से कम कुछ समय के लिए सावद्य प्रवृत्ति से हटने के लिए गुणवंत एवं शिक्षाव्रतों को जीवन में उतारना चाहिए और तप साधना में भी संलग्न रहना चाहिए । $ " सन्ति एगेहिं भवखहि गारत्या संजमुत्तरा" • उत्तराध्ययन सूत्र ५, २०
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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