SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रश्नों के उत्तर. दिक-परिमाण व्रत दिक दिशा को कहते हैं । वह छह प्रकार की होती है- पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, उर्ध्व और वो दिशा । इन सभी दिशाविदिशाओं में आने-जाने एवं सामान मंगाने भेजने को जो मर्यादा की जाती है, उसे दिक् परिमाण व्रत कहते हैं । " प्रत्येक मनुष्य के जीवन का ध्येय मांगे बढ़ने का होता है। हर इन्सान प्रभ्युदय की भावना से गति करता है । परन्तु अपने जीवन में अभ्युदय लाने के लिए मन और विचारों को नया मोड़ देना जरूरी है । जीवन का विकास मन को शान्ति एवं एकाग्रता पर आधारित है और चित्त में शान्ति एवं समाधि की अनुभूति तभी होती है, जबकि इच्छात्रों एवं कामनाओं का विस्तार नहीं होने दिया जाता। या यों कहिए, अपनी आकांक्षायों को सीमित कर लेना तथा आवश्यकताओं को घटाते जाना ही सुख-शान्ति को पाना है । व्रत नियम बढ़ती हुई आकांक्षामों को ब्रेक लगाने का काम करता है । दिक् परिमाण व्रत आवश्यकताओं को और अधिक संकोच करने की बात कहता है । यह व्रत जोवन को कम बोझिल बनाता है ! - यह हम देख चुके हैं कि गुणवतप्रणों को परिपुष्ट करने वाले हैं । इस दृष्टि से दिक्-परिमाण व्रत भो मूल गुण में कुछ विशेषता बढ़ाता है । इस तरह गुण व्रतों का मूल्य एवं महत्त्व अणुव्रतों पर आधारित है । इसो कारण अणुव्रतों के बाद हो उन का विधान किया ka गया . ! यह हम विस्तार से बता चुके हैं कि श्रावक जब व्रतों को स्वोकार करता है, तो वह पहले साधारणतः स्थूल हिंसा, स्थूल भूल, स्थूल.. चोरी, अमर्यादित मैथुन (स्व स्त्रो के साथ मर्यादा एवं उसके अतिरिक्त PARIWART A " ५००
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy