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________________ " प्रश्नों के उत्तर संकेत से ऐसा कार्य करने की प्रेरणा देता है । इस व्रत की सुरक्षा के लिए वह पांच वातों से 'सदा बचा रहता हैं- १ बन्धे, २- वहे, ३-छविच्छेए, ४- ग्रइभार, ५ भत्त-पाण-विच्छेदे । उक्त कार्यों को जैन परिभाषा में प्रतिचार कहते हैं और ये श्रतिचार श्रावक के लिए जानने योग्य हैं परन्तु श्राचरण करने योग्य नहीं हैं । इन की अर्थ-विचारणा इस प्रकार हैस १ - बन्धे - किसी भी प्राणी को ऐसे वन्धन से नहीं बांधना, जिससे उसे संवेदना, संक्लेश एवं कष्ट पैदा हो या जिस से उस का प्राणान्न भी हो जाए । इस का अर्थ यह है कि श्रावक प्रत्येक कार्य विवेक, यतना एवं दया की भावना से करता है । पशु को या पागल ग्रवस्था में कभी मनुष्य को भी बांधना पड़े तो उस में उसकी हितबुद्धि रहती है । वह उसे ऐसे वन्धन से नहीं बांधता जिस से उसे किसी भी प्रकार की पीड़ा या कष्ट हो तथा उठने-बैठने या शेयन आदि कार्य सुविधापूर्वक न कर सके । इस के अतिरिक्त, श्रावक यदि राजा या अधिकारी व्यक्ति है तो वह ऐसे कानून के शिकंजे से प्रजा-जनों को नहीं बांधता जिससे उन का जीवन कष्टमय वन जाए । कानून या कलम के बन्धन से भी किसी प्राणी को बांध कर उस के सत्त्व को चूसना भी हिंसा है और श्रावक इस क्रूर कर्म से भी बच कर चलता है । 22 PARA 87 - २ त्रहे--- किसी प्राणी को मारना पीटना या त्रास देना । श्रावक अनिष्टबुद्धि से किसी भी प्राणी को त्रास भी नहीं देता है २४:३-छविच्छेए- नाक-कान आदि अंगोपांगों का विच्छेद करना भी -हिंसा है । श्रौर किसी व्यक्ति को आजीविका या तनख्वाह मजदूरों को काट लेना भी इसी दोष में शामिल है। अतः श्रावर्क किसी के 4 : अंगोपांगों का छेदन नहीं करता तथा किसी के उचित वेतन में भी WAAM ४५३ न
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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