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________________ प्रश्नो के उत्तर २ कराने वाले, नरक के महागर्त मे गिराने वाले राग - द्वेष को परास्त करता है । वस्तुत राग-द्वेष ही आत्मा के असली शत्रु है । मानवमानव मे शत्रुता का भाव पैदा करने वाले ये ही है । इन्ही के कारण मनुष्य बाह्य शत्रुओं की कल्पना करता है, एक इन्सान दूसरे इन्सान को अपना दुश्मन समझने लगता है । राग और द्वेष मानव-मन के विकारी भाव है । मन पसन्द वस्तु पर मोह या आसक्ति को राग और नापसन्द वस्तु से नफरत, घृणा" एव तिरस्कार करने की वृत्ति को द्वेष कहते हैं । राग और द्वेप ही ससार परिभ्रमण के मूल कारण हैं । इनसे मन मे मोह जागता है | मोह से कर्म का वन्ध होता है । कर्म-बन्ध ही जन्ममरण का मूल कारण है । और जन्म-मरण ही वास्तविक दुख है । अस्तु, राग-द्वेप ही दुख-दैन्य के मूल कारण और आत्म-विकास के प्रतिबन्धक है। इन अन्तरग महाशत्रुओ को जीतने वाले महा-पुरुष को जिन कहते है | प्रश्न- जिन कौन होते हैं ? उत्तर- जिन किसी व्यक्ति विशेष का नाम नही है । न उस पर किसी सम्प्रदाय, धर्म, पथ या मजहब का ही आधिपत्य है । जिनत्व देश, जाति, पंथ, मज़हव, रग एवं वर्गभेद के खूटों से बंधा हुआ नही होता भगवान् महावीर के शब्दो मे, राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करने वाला प्रत्येक मानव जिन वन सकता है चाहे वह किसी जाति का हो, किसी देश का हो, किसी पथ का हो, किसी लिंग मे हो, किसी वेश-भूषा में " रागो य दोसोविय कम्मवीयें, कम्म च मोहप्पभव वयति । कम्म च जाइमरणस्स मूल, दुवख च जाइमरण वयति ॥ ——उत्तरा..., न ३२,गा · ७
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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