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________________ बिइयं सतं १-११ उद्देसा ५५. कइविहा णं भते । कण्हलेस्सा एगिदिया पण्णत्ता ? गोयमा । पचविहा कण्हलेस्सा एगिंदिया पण्णत्ता, भेदो चउक्को जहा कण्हलेस्सएगिदियसए जाव वणस्सइकाइयत्ति ॥ ५६ कण्हलेस्सग्रपज्जत्तामुहुमपुढविक्काइए ण भते । इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरत्थिमिल्ले ? एव एएण ग्रभिलावेण जहेव प्रोहिउद्देस जाव लोगच रिमते त्ति । सव्वत्थ कण्हलेस्सु चेव उववाएयव्वो । ५७ कहि ण भते । कण्हलेस्सग्रपज्जत्तावादरपुढविक्काइयाण ठाणा पण्णत्ता एवं एएण अभिलावेण जहा ग्रोहिउद्देसओ जाव तुल्ल ट्ठियति ॥ ५८ सेव भते । सेव भते । ति ॥ ५६ एव एएण ग्रभिलावेण जहेव पढम सेढिसय तहेव एक्कारस उद्देसगा भाणियव्वा ॥ ? ३-५ सताई ६०. एवं नीललेस्सेहि वि सत । काउलेस्सेहि वि सत एव चेव । भवसिद्धियएगिदिएहि 'सत ॥ १. ० एहि वि (म, स ) 1 १०२२
SR No.010873
Book TitleJainagmo Me Parmatmavad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashanalay
Publication Year
Total Pages1157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size50 MB
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