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________________ EXANMAIYALALITERATota ( 3 ) प्रमोद भाव रहें मेरी दृष्टि सदा दूसरों के गुणों और अपने शवगुणों पर रहे मेरा हृदय गुणियों के प्रेमपाश में बंधा रहे, उन के ही प्रत्यक्ष दर्शन वातालाप तथा परोक्ष शास्त्र द्वारा सगति से हृदय असीम प्रफुल्लित रहे। मै औरो के दुर्गुण न देसता हुश्रा उन के गुणों का ग्राहक बनू / हे प्रलोक्यपत्ति मेरा जीवन जगतवासी जीवा के लिए श्रादर्श रूप हो, दीन दुखी अनाथों के थार्तनाद को सुनकर मेरा हृदय करणा और दया से / उन के दुःखों को अपने दुख के समान समझता हुअा अाई हो जावे। यथाशक्ति तन मन धन से उनकी सहायता करने में तत्पर रह / हे भगवन् / निन्दा स्तुति संसार का स्वभाव ही है मुझ में इस प्रकार A की सहन शनि उत्पन्न हो जिस से मैं निन्दा, क्रोध, अपमान, द्वेप एं करने वालों पर घृणा और प्रशसा, मान बडाई करने वालों पर प्रसन्नता प्रगट नहीं करू, याल्क निंदक पापी धारमा जो पाप प्रवृति में रमण करते हुए अपने अशुभ कर्मों का यध एकत्रित करते हैं उनके प्रति मेरे करुणा भाव रहें उनके हर प्रकार प्रास्म सुधार में तत्पर रहू। हे नाथ मेरी यह पवित्र भावना है कि मैं सर्व जीवों का परम हितेपी / होता हुवा थापके प्रतिपादन किये हुए अहिंसा न्याय पूर्वक व्रत का सर्वत्र प्रचार कर सकू / हे सर्वज्ञ देव ' मेरी प्रारमा मे ऐवा यल उत्पन्न हो जिस A से मैं प्रत्येक प्राणी के हृदय में शान्ति प्राप्त कर सकू और उस शान्ति प्रचार से प्रत्येक प्राणी प्रेममय जगत् का दर्शन कर सके और उसी शान्ति और प्रेम के माहात्म्य से निर्वाण पद के अधिकारी हो सकें / हे मोक्ष नायक प्रभु / मेरा वह दिन धन्य होगा जय कि मैं ससार के विशेष बन्धनों से छूटकर एकान्त स्थान सेवन करके अखड निर्मल निरातिचार श्रावक के यारह मस ग्यारह प्रतिमा श्राराधन करता हुआ अपनी आत्मा का RAMETEXTREIXXXX Exer-in-XXCXsxexxx Xnxxexxx X
SR No.010866
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
Publisher
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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