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________________ FACExtnaXXEREDEXERE meTREEXXXXREKORAORARKARKIRArememor NexxxxexTEAM-Ake...... Lyu II ( 23 ) अंश मात्र है। कर्म का प्रावरण हट जाने से चेतना परिपूर्ण रूप में प्रकट होती है, उसी को ईश्वर भाव या ईश्वरत्व की प्राप्ति समझना चाहिये। धन, शरीर आदि वाह्यविभूतियों में आत्मबुद्धि करना अर्थात् जड़ में ममता करना वाह्यदृष्टि है। इस अभेद-भ्रम को बहिरात्मभाव सिद्ध करके उसे छोड़ने की शिक्षा कर्म शास्त्र देता है। जिनके संस्कार केवल बहिरात्मभावमय हो गए हैं। उन्हें कर्म-शास्त्र का उपदेश भले ही रुचिकर न हो परन्तु इससे उसकी सचाई में कुछ भी अन्तर नहीं पड़ सकता। शरीर और आत्मा के अभेद-भ्रम को दूर कराकर उसके भेद ज्ञान को विवेक-ख्याति को कर्म शास्त्र प्रकटाता है। इसी समय से अन्तर्दृष्टि खुलती है / अन्तर्दृष्टि के द्वारा अपने में स वर्तमान परमात्मभाव देखा जाता है / परमात्म-भाव को देखकर उसे पूर्णतया अनुभव में लाना-यह जीव का शिव (ब्रह्म) होना है / इसी ब्रह्मभाष को व्यक्त कराने का काम कुछ और। ढंग से ही कर्मशास्त्र ने अपने उपर ले रक्खा है, क्योंकि वह आत्मा को अभेद भ्रम से भेद शान की तरफ झुका कर। फिर स्वाभाविक अभेद ज्ञान की उच्च भूमिका की ओर खींचता है। वस, उसका कर्तव्य क्षेत्र उतना ही है। साथ ही योग शाल के मुख्य प्रतिपाद्य अंश का वर्णन भी उसमें मिल जाता है। इसलिये, यह स्पष्ट है कि कर्मशास्त्र अनेक प्रकार के श्राध्यात्मिक शास्त्रीय विचारों की सान है। वही उसका महत्त्व है। बहुत लोगों को प्रकृतियों की गिनती, संख्या की बहुलता आदि से उस पर रुचि नहीं होनी / परन्तु इस में कर्म शास्त्र का क्या दोष ? गणित, पदार्थ विज्ञान आदि गूढ व / AMERITRIKAXMARArmer Commy
SR No.010866
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
Publisher
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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