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________________ -sv Title- S E XRRAYCHER ( 166 ) ___ वैश्यानां समुद्धारकप्रदानेन कोपोपशमः 46 अर्थ-वैश्य जनों का कोप उधार देने से शान्त हो जाता है। mexGXOXIXIMEXICOMXEXICAL दण्डभयोपधिभिर्वशीकरणं नीचजात्यानाम् 50 .. अथ-नीच जाति वाले व्यक्तियों का कोप दंड और भय . देने से शान्त हो जाता है। न बणिग्भ्यः सन्ति परे पश्यतोहराः 51 अर्थ-कूट तोल मापादि करन वाले वैश्यों से बढ़ कर 5 कोई चोर नहीं है क्योंकि अन्य चोर तो परोक्ष में चोरी करते हैं, किन्तु ये प्रत्यक्ष में ही चोरी करते है। चिकित्सागम इच दोपविशुद्धिहेतुर्दण्डः 52 अर्थ सन्निपातादि दोष की निवृत्ति के लिये जिस प्रकार वैद्यक शास्त्र है उसी प्रकार श्रात्मशुद्धि के लिये भी दण्ड विधि है। नास्त्यविवेकात्परः प्राणिनां शत्रुः 53 अर्थ-अविवेक से बढ़ कर प्राणियों का कोई शत्रु नहीं है। बहुक्लेशेनाल्पफलः कार्यारम्मो महामूर्खाणाम् 54 / अर्थ-वे महामूर्ख हैं जो ऐसे काम को आरंभ करते है जिससे क्लेश तो वहुन हो और फल अल्प ही निकले। दोपभयान कार्यारम्भः कापुरुषाणाम् 55 अर्थ-वे कातर पुरुष है जो दोपों के भय से कार्य प्रारंभ ही नहीं करते। HEREMIX -- wwwxcomxxxxxxxxxxxcoxRAImextump uoming
SR No.010866
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
Publisher
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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