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________________ RMERAMERANGIKARAN AXXXXXKAXXCIXXRAKARMA ( 156 ) गुरु-हे शिष्य ! काय योग के अनंत प्रदेशी स्कंध-५वर्ण / र रस 2 गध और स्पर्श वाले होते हैं। अत ये योग भी RAEBAREERESemenaa / शिष्य-हे भगवन् ! जव ज्ञानपूर्वक मनोयोग, वचन योग पार काय योग का निरोध किया जाय, तप किस फल की प्राप्ति होती है? गुरु-हे शिष्य ! जय तीनों योगों का सम्यग् ज्ञानपूर्वक नराध किया जाए तव श्रात्मा अयोगी होजाता है। योगी आत्मा अनन्त शान, अनन्त दर्शन, अनंत (अक्षय) सुख और अनत शक्ति वाला होकर निर्वाण पद प्राप्त कर लेता है। अतः प्राणी को योग्य है कि वह पहले निरर्थक योगों का निरोध करने का अभ्यास करे फिर अशुभ योगों के निरोध करने का अभ्यास करे, तदनु शुभ योगों का निरोध करके 5 उन योगों को शान और ध्येय में लीन कर देवे, तत्पश्चात् अयोग पद धारण करके सादि अनंत पद की प्राप्ति करे, जिससे ससारचक्र से विमुक्त होकर सदा निजस्वरूप में निमग्न !! होता हुआ परमात्म पद की प्राप्ति कर सके। सब आर्य सिद्धान्तों का यही निष्कर्ष है। तब उक्त गुरु वाक्य सुनकर परम विनयी शिष्य गुरु आशा के अनुसार उक्त क्रियाओं के करन में लग गया, जिससे निर्वाण पद की प्राप्ति हो सकती है। XXXXXCXRXKXEXEREKA THA 5 ENTERTEXTRY TRA
SR No.010866
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
Publisher
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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