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________________ REERSITERACHAR KEEKCERITAILS पर-Tx KERAYARI EXIXERCREAKKAKKSaxxxxn.. सवसाहणीण इस पद की आवश्यकता नहीं है। यदि विशय को ही ग्रहण करना है तव तो फिर नपुंसक लिंग जाव भी सिद्ध पद ग्रहण कर सकते हैं चा करते हैं तब लिय 'नमोलोए सबनपुंसगसाहुणं' इस प्रकार एक और तन सूत्र की रचना करनी चाहिए / जब इस प्रकार माना जायगा तव प्रत्येक व्यक्ति के लिये पृथक् सूत्र की रचना Mना चाहिए / श्रत यह ठीक नहीं है किन्तु साधुत्व पद सय म सामान्य रूप से रहता है, इसलिये 'नमो लोए सव्वसाइण' यही पद ठीक है। इस पद से अईन्त, सिद्ध, श्राचार्य और उपाध्याय तथा अन्य यावन्मात्र प्रवर्तकादि की उपाधियां है, उन के भी अतिरिक्त जो सामान्य साधु वा आर्यायें है, उनी / सय का ग्रहण किया गया है तथा श्राचार्य वा उपाध्याय--इन दो विशेष उपाधियों को छोड़कर शेष सभी उपाधिया साधुत्व भाव में ली गई है, इसलिए भी 'नमो लोए सव्वसाहणं' यही के पद ठीक है। शिष्य-जय सिद्ध पद पाठ कर्मों से रहित है और इन्त पद चार कर्मों से युक्त है तो फिर पहले 'नमो सिद्धाण' यह / पद चाहिए था तदनन्तर 'नमो अरिहंताणं' यह पद ठीक था? __ गुरु-हे शिष्य ! सव से पहले उपकारी को नमस्कार किया जाता है अत चार कर्मों से युक्त होने पर भी सब से प्रथम अन्तिों को नमस्कार करना युक्तियुक्त है। कारण कि केवल मान के होने से चे भव्यजीवों के तारने के लिये स्थान 2 पर उपदेश देते हैं, वह उपदेश भव्य प्राणियों के लिये श्रुत a ज्ञान होता है, श्रुत झान ही अन्य सव झानों से बढ़ कर परो 2.MIRom
SR No.010866
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
Publisher
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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