SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ PORXKEERTMareAREIXXXSEXE उत्तर-नहीं। ऐसा मानने पर पहिले जीव शुद्ध है इस प्रकार मानना पड़ेगा / जव जीव सर्वथा शुद्ध मानलिया गया तोफिर इसको कर्म लगे क्यों ? तथा इस प्रकार मानने पर अजीव अथवा सिद्धों को भी कर्म लग जाऐंगे इसलिये यह पक्ष भी ग्राह्य नहीं है। प्रश्न-तो क्या श्रात्मा और कर्म युगपत् समय में ही उत्पन्न हुए। उत्तर-नहीं। क्योंकि इस प्रकार मानने पर श्रात्मा और कर्म दोनों ही उत्पत्ति धर्म वाले मानने पड़ेंगे। सो जव आत्मा और कर्म उत्पत्ति धर्म वाले हैं तव इन का विनाश भी मानना पड़ेगा। तथा फिर दोनों की उत्पत्ति में दोनों के पहले कारण क्या क्या थे क्योंकि कारण के मानने पर ही कार्य माना जा सकता है जैसे मिट्टी से घड़ा / इसलिये यह पक्ष भी ठीक नहीं प्रतीत होता। प्रश्न-तो क्या फिर जीव सदा कर्मों से रहित ही है ? उत्तर-यह पक्ष भी ठीक नहीं है। क्योंकि जब जीव कमी से रहित ही मान लिया तो फिर इसको कर्म लगे क्यों? तथा कमों के बिना ये संसार में दु ख घा सुख किस प्रकार भोग सकता है / तथा यदि कर्म रहित भी श्रात्मा संसार चक्र में परिभ्रमण कर सकता है तो फिर मुक्तात्माएं भी संसार चक्र में परिभ्रमण करने वाली माननी पड़ेंगी / अतः जीव कर्मों से रहित भी नहीं माना जा सकता। प्रश्न-तो फिर जीव और कर्म का स्वरूप किस प्रकार मानना चाहिए? उत्तर-जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि काल से है। Nag a rmarwrew-manti NEXPERXXXXTARxxxxnxAIXXEEXXXCHERI -
SR No.010866
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
Publisher
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy