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________________ MEREMOIRynonymERE .. ... -.. .in -: .ne ग्यारहवाँ पाठ m TwXXXRXAXmxnxx CATEXTXMEXIRExx (गुरु शिष्य का संवाद) शिष्य हे भगवन् ! श्रात्मा किस प्रकार से अपन अन्त - करण की शुद्धि कर सकता है? . गुरु-हे शिष्य ! आलोचना द्वारा अन्त करण की शुद्धि की जा सकती है। ॐ शिप्य-हे भगवन् ! श्रालोचना किसे कहते हैं ? गुरु-हे शिष्य ! जो पाप कर्म गुप्त रूप से किया गया हो, उस कर्म की गुरु के पास आलोचना करनी चाहिए अर्थात् गुरु के समक्ष उस फर्म को प्रकट कर देना चाहिए। गुरु उस कर्म का जो प्रायश्चित्त प्रदान करें उसे सहर्प स्वीकार करना चाहिए क्योंकि वह प्रायश्चित्त आत्म शुद्धि के लिये ही होता है / किन्तु आलोचना करते समय निस्संa कोच भाव से अपने हृदय के शल्यों को निकाल देना चाहिए जिससे हृदय की शुद्धता पूर्ण प्रकार से हो सके। शिप्य-हे भगवन् ! किस गुरु के पास थालोचना करनी चाहिए? . गुरु-जो गुरु साधु के गुणों से पूर्ण हो, जिस में धैर्य गुण विशेषतया पाया जाता हो, जो उस दोप को किसी अन्य - MEERIERROREATREENAEER RaISEK.a.ra-Tiru
SR No.010866
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
Publisher
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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