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________________ FREE RAEXERCrnराला मामलXxinानमालाAGOK EiRLAXMARAT HARXMARATEXCARRESAXRAPARXX दशवाँ पाठ (मोहनीय कर्म के बन्ध विषय) प्रिय पाठको ! अनादि काल से यह जीव अज्ञानवश नाना प्रकार के कमी के करने से नाना प्रकार की योनियों में नाना प्रकार के दुखों का अनुभव करता रहा है और फिर अपने निजस्वरूप को भूल कर पर स्वरूप में निमग्न हो रहा / हैं, जिसके कारण से उसका श्रात्मा परम दुःखित और दीन माव वाला दीखता है। ये सव चेष्टाएँ इसके अज्ञान भाव की / है / अत शास्त्रकारों ने सव से प्रथम शान को मुख्य माना है क्योंकि जय श्रात्मा ज्ञान युक्त होता है तब उसका अज्ञान आत्मा से इस प्रकार दूर भागता है जिस प्रकार सूर्य के उदय होते ही अन्धकार भाग जाता है। इसलिए सब से प्रथम विद्यार्थियों को उन कर्मों के विषय में वोध होना चाहिए, जिनके A करने से प्रात्मा महामोहनीय कर्म की उपार्जना करता है। श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने जनता के हित के लिये समवायांग सूत्र के 30 चे स्थान पर उन तीस कर्मों का / वर्णन किया है, जिनके करने से जीव महा अज्ञानता के कमाँ की उपार्जना कर के संसार चक्र में परिभ्रमण करता है। अतः तं वे कर्म न करने चाहिए। श्रय पाठकों के योध के लिये सूत्र सहित उक्त 30 अंक लिखे जाते हैं KHET ATOMAADIMomanKASumms
SR No.010866
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
Publisher
Publication Year
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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