SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिसमे मुझे भी ठीक पता लगजाय कि मैथुन मेवन करने से अनेक दोप उप्तन्न हो जाते हैं । जिनदत्त -प्रियवर । यदि आप सुनना चाहते हो तो आप ध्यान देकर सुनिये । जिनदास -प्रियवर । मैं ध्यान पूर्वक ही सुनना चाहता हू आप कृपा बीजिये। जिनदत्त -सुहृद्वर्य । सुनिये, प्रथम तो सबसे पहिले इस पाप के द्वारा अपने पवित्र शरीर का नाश होजाता है। उमके पश्चात जो शरीर के भीतर आत्मा निवास करता है उसकी जो ज्ञानादि अनत शातिया है फिर उनको भी आघात पहुचता है। जिस प्रकार एक तीक्ष्ण सड्ग [ तलवार ] मे सिर पाटने पर फिर आत्मा भी उस शरीर से पृथक होजाता है ठीक उसी प्रसर इम मेथुन ग्रीडा से शरीर की हानि होने मे फिर आत्मा के गुणों को भी आघात पहुचता है। जिनदास-प्रियार ! इस मैथुन पीडा मे शरीर को क्या २ हानि पहुचती है, पहले यहतो बतलाइये ? जिनदत्त-यायन्मान प्राय अमाध्य पोटि के रोग हैं उनकी उन्नत्ति का कारण प्राय मैथुन
SR No.010865
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherJain Swarup Library
Publication Year
Total Pages210
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy