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________________ ११ आत्मारूप का परित्याग नहीं करता और शेय रूप पदार्थों को रूप ही समझता तथा उपादेयरूप पाया को धारण नहीं पर Her aers उम आत्मा को शाति का मार्ग ही उपलब्द्ध नहीं हो सकता । कारण कि जबतक उस आत्मा पाप कर्मों या परि त्याग नहीं किया और जीन तथा अनीन या पुण्य क्मों के मार्गों का ज्ञान प्राप्त नहीं किया, सयर या निर्जरा के मागा यो अगीकार नहीं किया तयतय उम आत्मा को दिन प्रकार स्वानुभव हो सका है ? तथा निम प्रकार वायु से दीपक पायमान होग रहता है या जल म वायु के कारण मे युत (बुलबुले ) उत्पन्न होते रहते हैं, ठीक उसी प्रकार पुण्य और पाप के नल मे या उनकी उत्कृष्टता मे आत्मा भी अस्थिर चित्तवाला हो जाता है जिसके कारण से वह स्वानुभव उहीं कर मता या करने में उसे कई प्रकार के विघ्न उपस्थित होते रहते हैं । aur faar द्वारा प्रत्येक पदार्थ पर ठीक २ अनुमन करना चाहिये अथात् प्रत्येय त्रियाएँ विवेक पूर्वक ही होनी चाहिये क्याकि यह बात भी मार से मानी गई है कि जो कार्य विवेव पूर्वक किया जाता है पह सदैव पाल शुभ पवन तथा आत्मा के हित में लिये होता है । और
SR No.010865
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherJain Swarup Library
Publication Year
Total Pages210
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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