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________________ पञ्चम अध्याय ।। ६९३ लगना कुछ असंभव नहीं है, परन्तु अनावश्यक समझ कर उस विषय में हम ने कोई परिश्रम नहीं किया, क्योंकि सभासम्बधी प्रायः वे ही प्रस्ताव हो सकते हैं जिन्हें वर्तमान में भी पाठकगण कुछ २ देखते और सुनते ही होंगे । ___अब विचार करने का स्थल यह है कि-देखो! उस समय न तो रेल थी, न तार था और न वर्तमान समय की भॉति मार्गप्रबंध ही था, ऐसे समय में ऐसी बृहत् ( बडी ) सभा के होने में जितना परिश्रम हुआ होगा तथा जितने द्रव्य का व्यय हुआ होगा उस का अनुमान पाठकगण स्वय कर सकते है। ___ अब उन के जात्युत्साह की तरफ तो जरा ध्यान दीजिये कि-वह ( जात्युत्साह ) कैसा हार्दिक और सद्भावगर्भित था कि-वे लोग जातीय सहानुभूतिरूप कल्पवृक्ष के प्रभाव से देशहित के कार्यों को किस प्रकार आनन्द से करते थे और सब लोग उन पुरुषों को किस प्रकार मान्यदृष्टि से देख रहे थे, परन्तु अफसोस है कि वर्तमान में उक्त रीति का विलकुल ही अभाव हो गया है, वर्तमान में सब वैश्यों में परस्पर एकता और सहानुभूति का होना तो दूर रहा किन्तु एक जाति में तथा एक मत वालों में भी एकता नहीं है, इस का कारण केवल आत्माभिमान ही है अर्थात् लोग अपने २ बड़प्पन को चाहते हैं, परन्तु यह तो निश्चय ही है कि-पहिले लघु बने विना बड़प्पन नहीं मिल सकता है, क्योंकि विचार कर देखने से विदित होता है कि लघुता ही मान्य का स्थान तथा सब गुणों का अवलम्बन है, इसी उद्देश्य को हृदयस्थ कर पूर्वज महज्जनों ने १-एकता और सहानुभूति की बात तो जहाँ तहाँ रही किन्तु यह कितने शोक का विषय है कि-एक जाति और एक मतवालों में भी परस्पर विरोध और मात्सर्य देखा जाता है अर्थात् एक दूसरे के गुणो. कर्प को नहीं देख सकते हैं और न वृद्धि का सहन कर सकते हैं। २-किसी विद्वान् ने सत्य ही कहा है कि-सर्वे यत्र प्रवत्कार , सर्वे पण्डितमानिन ॥ सर्व महत्त्वमिच्छन्ति, तदृन्दमवसीदति ॥ १॥ अर्थात् जिस समूह में सब ही वका (दूसरों को उपदेश देने वाले हैं अधात् श्रोता कोई भी वनना नहीं चाहता है ), सब अपने को पण्डित समझते हैं और सब ही महत्व (वडप्पन ) को चाहते हैं वह (समूह) दु ख को प्राप्त होता है ॥ १॥ पाठकगण समझ सकते हैं कि वर्तमान मे ठीक यही दशा सव समूहों (सव जातिवालों तया सव मतवालों) में हो रही है, तो कहिये सुधार की आशा कहाँ से हो सकती है ? ॥ ३-स्मरण रहे कि-अपने को लघु समझना नम्रता का ही एक रूपान्तर है और नम्रता के विना किसी गुण की प्राप्ति हो ही नहीं सकती है, क्योंकि नम्रता ही मनुष्य को सव गुणों की प्राप्ति का पान वनाती है, जव मनुष्य नम्रता के द्वारा पात्र बन जाता है तव उस की वह पात्रता सव गुणों को खींच कर उस में स्थापित कर देती है अर्थात् पात्रता के कारण उस में सव गुण खय ही आ जाते हैं. जैसा कि एक विद्वान ने कहा है कि-नोदन्वानर्थितामेति, न चाम्भोभिन पूर्यते ॥ आत्मा तु पात्रता
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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