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'हे राजन् | ऐसे विचार कर तप को ग्रहण,
श्राचरण, करना घ्यावश्यक है ।
हे पृथिवीपते ! जिस जीवने जैसे शुभ अथवा अशुभ कर्म तथा सुख दुःख उपार्जित न किए होते हैं, उन्हीं के प्रभाव से पर लोक को चला जाता है, कर्म ही उसके साथ जाते हैं, अन्य कोई भी साथी नहीं बनता ।
और वेह जीव का
धर्म का
हे महीपते ! इस प्रकार की व्यवस्था को देख कर श्री क्यों वैराग्य को प्राप्त नहीं होता, अर्थात् इन सांसारिफ विनाशी, क्षणिक, ध्रुव सुखों के ममत्त्व भाष को त्याग कर कैवल्यरूपी नित्य ध्रुव सुखों की प्राप्ति का
प्रयत्न कर ।
इस प्रकार मुनि के परम वैराग्य उत्पादक, स्वम्पातर, वहुत अर्थ सूचक, शराब (प्याले ) में सागर को मरने की कहावत को चरितार्थ करने वाळा, सत्योपदेश श्रवण करके, वह संयत राजा अत्यन्त संवेग को प्राप्त हुए, और गर्द भालि नामक अनगार के समीपं वीतराम धर्म में दीक्षा के लिए उपस्थित होगए, राज्य को त्याग