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________________ १३२ अनसम्प्रदायशिक्षा ॥ इस के पश्चात् उखनौ के नपाप ने इन को राना का पद प्रदान किया था बिस से राना पच्छराज जी के परानेवाले लोग भी राजा कहलाने लगे थे। उपर कहे हुए गोत्रपाठों में से एक बुद्धिमान पुरुप ने फतहपुर के नमान ने मपनी घसुराई का अच्छा परिचय दिया था, मिस से नवान ने प्रसन्न होकर कहा था कि-"या रायादा है।" तब से नगरवासी लोग भी उसे रापवादा हने को और उस की मौसाद घाले लोग मी रापजादा कहलाये, इस प्रकार उपर पड़े हुए गोत्रम निरन्तर विचार होता रहा और उस की नीचे लिखी हुई १७वालामें हुई-बाफमा । २-नाहटा । २-रापजावा । १-पुछ। ५-घोरगाह। ६-इंडिया । ७-चोगा। ८-सोमम्मिा । ९-बाहतिया । १०-पसाह । ११-मीठनिया । १२-पापमार । १३-भाम् । १४-पतू रिया । १५-भगविया । १६-पटषा (जैसम्मेरवाला) १७-नानगाणी । दशवीं सख्या-रतनपुरा, कटारिया गोत्र ॥ विक्रम सनत् १०२१ ( एक इवार कीस) में सोनगरा पौहान रामपूत रवनसिंह ने रतनपुरनामक नगर रसापा, जिसके पाप पाट पर मिक्रम संवत् १९८१ (एकागार एक सौ झ्यासी) में भमय तृतीया के दिन घनपाठ रामसिंहासन पर मैठा, एक दिन राना पनपाठ सिकार करने के रिसे अंगत में गमा भौर सुप न रहने से बहुत दूर पम गया परन्तु कोई भी शिकार उसकेम न लगी, भासिरकार यह निराश होकर वापिस छोय, छौटते समय रास्से में एक रमणीक सागव दीस पराग यह पोरेको एक नीचे मॉम कर तालाब के किनारे बैठ गया, मोड़ी देर में उस को एक मम सर्प मोड़ी ही दूर पर दीस पड़ा भोर मोक्ष में माकर ज्यों ही राजा ने उसके सामने एक पत्थर फेंका स्पो ही यह सर्प मस्यन्त गुस्से में मर गया और उस ने रामा पनपाठ कोशीम ही घट खाया, पाटसे ही सर्प का दिन पा गया मौर राचा मूर्षित (बेहोश ) होकर गिर गया, देपयोग से उसी मवसर में पहो चान्स, दान्त, निवेन्द्रिय तथा अनेक विधामों के निमि युगमपान चैनाचार्य भीबिनवत रिमी महाराग मनेफ साभुमों के सम विहार करते हुए मा निकले मौर मागे में मृततुस्म परे हुए मनुष्य को देस फर भाचार्य महारान सो हो गये और एक शिष्य से कहा कि-"इस के समीप बाफर देसो कि-इसे क्या हम है" चिप्प मे देस कर बिनम के साप हा कि-" महाराम ! मास होता है कि-सो सर्प ने काटा है" इस बात को मुन कर परोपकारी क्यामिमि भाचार्य महाराज उसके। पास अपनी क्रमठी विणा कर पेठ गये और ष्टिपाच विषा के द्वारा उस पर भपमा/ भोमा फिराने मो, मोरी ही देर में पनपाल सन्म होकर उठ पेय मौर मपने पास महा प्रतापी भानावे महाराम को मैठा हुषा देख कर उस ने धीमही सरेहोकर उन ममम और बन्दन किया तथा गुरु महाराम ने उस से पर्ममम मा, उस समय राय मनपाल
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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