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________________ " ६३ ) 1 राजाजी के मुख में शीघ्र पानी भर आया, और चाहा कि इस मृग का बंध करूं, रसों के लोलुपी राजा ने , सेना को वहां ही खड़े रहने की आज्ञा दी, केनल दो दासों को ही लेकर उसके पीछे अपने पवन जीत अश्व को दौड़ाना प्रारंभ किया, और बड़े दल से एक ऐसा धनुप मारा जो मृग के हृदय को विदीर्ण करता "हुआ उसकी दूसरी छोर जानिकता वब मृग, घाव से दुःखित हो र मृत्यु के भय में भाग कर एक अफव (( लताओं के ) मडप में जा गिरा, राजा अपने नशाने पर विश्वास करके घर्थात् मेरे धनुप महार से मृग प्रवश्यमेव हा घायल दोगया होगा, यतः वह कदापि 'जीवित नही रह सकेगा, ऐसा विचार करके उसके पीछे २ भागा हुआ पर ही गया, और उस घावयुक्त वह हरिण को देख अपने परिश्रम की सफलता का विचारही कररहा था, हि, व्यकम्मात् उसकी दृष्टि एक जैन सांधु पर पड़ी, जोकि धर्म और शुक्ल ध्यान को ध्या रहे थे, स्वाध्याय में प्रवृत्त तथा पोष क्षमा (शान्ति) नाथा पाचन (अहिंसा, 1 か । सत्यं, अवीर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) करके विभूषित ये ६ سیا
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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