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________________ पञ्चम अध्याय॥ मङ्गलाचरण ॥ वर्धमान के चरणयुग, नित वन्दों कर जोर ॥ ओस वाल वंशावली, प्रकट करूँ चहुँ ओर ॥१॥ श्री सरखति देवो सुमति, अविरल वाणि अथाह ॥ ओसवाल उपमा इला, सकल कला साराँह ॥२॥ दान वीर सब जगत में, धनयुत गुण गम्भीर ॥ राजवंश चढ़ती कला, जस सुरधुनि को नीरें ॥३॥ सकल बारहों न्यौत में, धनयुत राज कुमार ॥ शूर वीर मछराल है, जानै सब संसार ॥४॥ प्रथम प्रकरण-ओसवाल वंशोत्पत्ति वर्णन ॥ ओसवाल वंशोत्पत्ति का इतिहास ॥ चतुर्दश (चौदह ) पूर्वधारी, श्रुतकेवली, अनेक लब्धिसयुत, सकल गुणो के आगार, विद्या और मन्त्रादि के चमत्कार के भण्डार, शान्त, दान्त और जितेन्द्रिय, एवं समस्त १-चरणयुग अर्थात् दोनों चरण ॥ २-हाथ ॥ ३-अच्छी बुद्धि ॥ ४-निरन्तर ठहरने वाली ॥ ५-वेपरिमाण ॥ ६-पृथिवी॥ ७-सकल कला साराह अर्थात् सब कलाओ में प्रशसनीय ॥ ८-ऐश्वर्ययुक्त ॥ ९-गङ्गा ॥ १०-जल ॥ ११-जाति ॥ १२-विदित हो कि जैनाचार्य श्री रमप्रभसरि जी महाराज ने ओसिया नगरी में राजा आदि १८ जाति के राजपूतों को जैनधर्म का प्रहण कराके उन का "माहाजन" ( जो कि 'महाजन' अर्थात् 'वडे जन' का अपभ्रश है ) वश तथा १८ गोत्र स्थापित किये थे, इस के पश्चात् जिस समय खेडेला नगर मे प्रथम समस्त वारह न्यातें एकत्रित हुई थी उस समय जिस २ नगर से जिस २ वशवाले प्रतिनिधिरूप मे (प्रतिनिधि वन कर ) आये थे उन का नाम उसी नगर के नाम से स्थापित किया गया था, ओसियाँ नगर से माहाजन वश वाले प्रतिनिधि वन कर गये ये अत उन का नाम ओसवाल स्थापित किया गया, वस उसी समय से माहाजन वश का दूसरा नाम 'ओसवाल' प्रसिद्ध हुआ, वर्तमान में इस ही (ओसवाल ही) नाम का विशेष व्यवहार होता है ( माहाजन नाम तो लुप्तप्राय हो रहा है, तात्पर्य यह है कि इस नाम का उपयोग किन्हीं विरले तथा प्राचीन स्थानों में ही होता है, जैसे-जैसलमेर आदि कुछ प्राचीन स्थानों
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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