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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ६०५ इस रोग में कभी २ स्त्री का पेट बडा हो जाता है और उस को गर्भ का भ्रम होने लगता है, परन्तु पेट तथा योनि के द्वारा गर्भ के न होने का ठीक निश्चय करने से उस का उक्त भ्रम दूर हो जाता है, गर्भ के न रहने का निश्चय क्लोरोफार्म के सुघाने से अथवा विजुली के लगाने से पेट के शीघ्र बैठ जाने के द्वारा हो सकता है । ___ इस रोग से युक्त स्त्रियों में प्राय अजीर्ण, वमन (उलटी), अम्लपित्त, डकार, दस्त की कनी, चूक, गोला, खासी, दम, अधिक आर्तव का होना, आर्तव का न होना, पीडा से युक्त आर्तव का होना और मूत्र का न्यूनाधिक होना, ये लक्षण पाये जाते हैं, इन के सिवाय पेशाव में गर्मी आदि विचित्र प्रकार के चिह्न भी होते है। रोगी के यथार्थ वर्णन से तथा इस रोग के चिह्नों के समुदाय (समूह) का ठीक मिलान करने से यद्यपि इस रोग का ठीक २ निश्चय हो सकता है परन्तु तथापि कभी २ यह अवश्य ( जरूर ) सन्देह (शक ) होता है कि रोग हिष्टीरिया के सदृश (समान) है अथवा वास्तविक है अर्थात् कभी २ रोग की परीक्षा ( जाँच ) का करना अति कठिन ( बहुत मुश्किल ) हो जाता है, परन्तु जो बुद्धिमान् ( अक्लमन्द अर्थात् चतुर ) और अनुभवी ( तजुर्वेकार ) वैद्य है वे इस रोग की खैचतान को वायुजन्य आदि रोग के द्वारा ठीक २ पहिचान लेते है। कारण-इस रोग का वास्तविक ( असली) कारण कोई भी नहीं मिलता है, क्योंकि इस (रोग) के कारण विविधरूप ( अनेक प्रकार के ) और अनेक है। __ स्त्रीजाति में यह रोग विशेष (प्रायः ) देखा जाता है तथा पुरुष जाति में कचित् ही दीख पडता है। __इस के सिवाय-पन्द्रह बीस वर्ष की अवस्थावाली, विधवा तथा बन्ध्या (वाझ) स्त्रियों के वर्ग में यह रोग विशेष देखने में आता है । स्पर्शविकार, गतिविकार, मनोविकार, गर्भाशय तथा दिमाग की व्याधि, मन की चिन्ता, खेद, भय, शोक, विवाहसम्बधी सन्ताप (दुःख ), अजीर्ण (कली), हथरस (हाथ के द्वारा वीर्य का निकालना ), मन का अधिक श्रम ( परिश्रम ), अति विषयसेवन तथा मन को किसी प्रकार का धक्का पहुँचना, इत्यादि अनेक कारणों से यह रोग हो जाता है। १-यथार्थ वर्णन से अर्थात् सत्य २ हाल के कह देने से ॥ २-वास्तविक अर्थात् असली ॥ ३-क्योंकि इस रोग की उत्पत्ति रजोविकार से प्राय होती है, अर्थात् रज में विकार होने से वा मासिकधर्म (रजोदर्शन) मे रज की तथा समय की न्यूनाधिकता होने से यह रोग उत्पन्न होता है ॥ ४-स्पर्शविकार और गतिविकार की अपेक्षा मनोविकार प्रधान कारण है ॥ ५-वास्तव में तो दिमाग की व्याधि, मन की चिन्ता, खेद, भय, शोक और विवाहसम्बधी सन्ताप का समावेश मनोविकार में ही हो सकता है परन्तु स्पष्टता के हेतु इन कारणों को पृथक् कह दिया गया है।
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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