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________________ जैनसम्प्रदामशिक्षा | १४- अधिक मार्ग में चलने से जिस के क्षोप रोग उत्पन्न हुआ हो उस को धैर्य वेका चाहिये, बैठाना चाहिये, दिन में सुखाना चाहिये तथा शीतल, मधुर भौर बृहण ( पुष्टि करने अर्थात् धातु आदि को पढ़ाने वाले ) पदार्थ देने चाहियें । ५८६ १५-यम (भाव) के कारण जिस के शोप उत्पन्न हुआ हो उस रोगी की चिकित्सा स्निग्ध (चिकने ), अग्निदीपनफर्सा, स्वादिष्ठ ( जायकेदार ), श्रीवल, कुछ स्वटाईमाले तथा मणनाक पदार्थों से करनी चाहिये । समान जानना चाहिये इस पति का एक भैर उत्तरपति ( तथा योनि में परी ज्याना ) भी है, जिम्र का गफैन जहाँ अनावस्यक समझ कर नहीं किया जाता है, उस का विषय भाषश्यकतानुसार दूसरे कयों में देखना चाहिये ॥ के पाँचो कर्म नाचन (नस) मा छ, तात्पर्य यह है कि भोपभि मासिका से महब की जो नावन वा मम कहते है, इस कर्म के मावन और मस्वकर्म मे दो नाम है इसको मस्क है कि इससे नासिका की चिकित्सा होता है, ममकर्म के दो भेद है-रेचन और जेहन स्म में से घि फर्म से भीतरी पदार्थों को कम किया जाये उसे रेवन कहा है तथा जिस कर्म से भीतरी पक्षों की वृद्धि की जावे उसे स्नेहन का है। समयानुसार नस्य के गुण- प्रातःकाल को नाम फो करती है मध्याह की नस्म पित्त को और सायक की मध्य बादी को तर करती है, मस्म को प्रयाग में छेना चाहिये परन्तु मरि घोर रोम हो तो रात्रि में भी के क्रेता चाहिये। नस्य का निषेध पीछे तस्का मिस दिम गाव से उस दिन वचन के दिन मशीन शाम के समय में मर्मी, विपरोगी अजीर्मरोगी जिस को पति की गई हो जिसने नेहा भसब पिया हो प्यास्य उस बालक भय मून के बैग का रोकने बाछा परिश्रमी और थे नाम करना चाहता है, इन को नाम वा निषिद्ध है। नस्य की अवस्था जब पाठ वर्ष का न हो जाये तब तक भस्म नहीं देना चाहिये तथा अस्सी गर्म के पीछे नस्य नहीं देना चाहिये। रेचननस्य की विधिवीक्ष्ण तैस से अथवा तीन औषधों से पके हुए कों से कानों से अथवा की केनी चाहिये यह मम नासिक के दोनों किन्नरों में चाहिये यह उत्तम मात्रा है, छ १ मूरों की मध्यम नस्य में औषधों की मात्रा का परिमाण झींस एक जै। भर सेंषा निमक छ रत्ती धूप चार धाम पानी टी भरा चाहिये । चननस्य के भेद-रेचनस्य के क्यपीडन और प्रथम येथे मेद - नस्य देऊन मारू को बाकी करना हो तो गाम्ब रीति से इन योगो भेदों का प्रप्रेम करना चाहिये जिस के साथ में दौक्ष्य पदार्थों को मिया हो उन का करके रस निचोड केला इस को भी भी रसों से रेप स्व नी चाहिये मात्रा है स्वर में प्रत्येक चित्र में भाऊ १ और चार २ हूँ की भभम मात्रा है। न भीपन रची भर देना चाहि रूपये भर तथा मधुर जन्म एक रूपये औरछ अगुवा हो की नही में ४४ रची दौरान चूर्म भरकर सुख की फेंक देकर उस चूर्ण को माफ में बड़ा बन्ध इस को प्रथमनाते है। मयों के पोम्प रोग--(प्र में कफ के स्वरभय म भरचि प्रविश्यान भए पौमस सूमम मृगी और कुप्रथेम में रेचक्मस बता चाहिये उनवाली रुक्ष मनुष्य और बालक को मेहनमस्व देना चाहिये गले के रोम
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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