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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५७७ परन्तु क्षीण और दुर्बल रोगी के उक्त पञ्च कर्म नहीं करने चाहिये, क्योंकि क्षीण और दुर्बल रोगी उक्त पंच कर्मों के करने से शीघ्र ही मर जाता है, क्योंकि क्षीण पुरुष के शरीर में उक्त पांचों कर्म विष के समान असर करते है, देखो ! आचार्यों ने कहा है कि“राजयक्ष्मा वाले रोगी का बल मल के आधीन है और जीवन शुक्र के आधीन है" इस लिये यक्ष्मा वाले रोगी के मल और वीर्य की रक्षा सावधानी के साथ करनी चाहिये । वमनकारी पदार्थों में सैंधानिमक और शहद हितकारी हैं, वमन में वीभत्स ( जो न रुचे ऐसी ) औषधि देनी चाहिये तथा विरेचन में रुचिकारी औषधि देनी चाहिये, काढे की ४ पल औपधों को चार सेर जल मे औटावे, जव दो सेर जल शेष रहे तव उतार कर तथा छान कर वमन के लिये रोगी को देवे । मात्रा - वमन के लिये पीने योग्य क्वाथ की आठ सेर की मात्रा वडी है, छ सेर की मध्यम है और तीन सेर की मात्रा हीन होती है, परन्तु वमन, विरेचन और रुधिर के निकालने मे १३ ॥ पल अर्थात् ५४ तोले का सैर माना गया है । कल्क वा चूर्णादि की मात्रा -- वमनादि में कल्क चूर्ण और अवलेह की उत्तम मात्रा वारह तोले की है, आठ तोले की मध्यम तथा चार तोले की अधम मात्रा है । वमन में वेग-वमन में आठ वेगों पीछे पित्त का निकलना उत्तम है, छ वेगों के पीछे पित्त का निकलना मध्यम है तथा चार वेगों के पीछे पित्त का निकलना अधम है, कफ को चरपरे तीक्ष्ण और उष्ण पदार्थोंसे दूर करे, पित्त को स्वादिष्ट और शीतल पदार्थों से तथा वात मिश्रित कफ को स्वादिष्ट, नमकीन, खट्टे और गर्म मिले पदार्थों से दूर करे, कफ की अधिकता में पीपल, मैनफल और सैंधानिमक, इन के चूर्ण को गर्म जल के साथ पीवे, पित्त की अधिकता मे पटोलपत्र, अहूसा और नीम के चूर्ण को शीतल जल के साथ पीवे तथा कफ युक्त वात की पीडा में मैनफल के चूर्ण की फकी ले कर ऊपर से दूध पीवे, अजीर्ण रोग में गर्म जल के साथ संघेनिमक के चूर्ण को खाकर चमन करे, जव वमन कर्त्ता औषध को पी चुके तच ऊँचे आसन (मेज वा कुर्सी ) पर बैठ कर कण्ठ को अण्ड के पत्ते की नाल से वारवार खुजला कर वमन करे । वमन ठीक न होने के अवगुण - मुख से पानी का बहना, हृदय का रुकना, देह में चकत्तों का पढ जाना तथा सव देह मे खुजली का चलना, ये सब वमन के ठीक रीति से न होने से उत्पन्न होते है । अत्यन्त वमन के उपद्रव - अत्यन्त वमन के होने से प्यास, हिचकी, डकार, वेहोशी, जीभ का निकलना, आँख का फटना, मुख का खुला रह जाना, रुधिर की वमन का होना, वारं वार थूक का आना और कण्ठ में पीडा का होना, ये अति वमन के उपद्रव हैं । अति वमन का यज्ञ - यदि वमन अत्यन्त होते होवें तो साधारण जुलाव देना चाहिये, यदि जीभ भीतर चली गई हो तो स्निग्ध खट्टे खारे रस से युक्त घी और दूध के कुल्ले करने चाहिये तथा उस प्राणी के आगे बैठ कर दूसरे लोगों को नीबू आदि खट्टे फलों को चूसना चाहिये, यदि जीभ बाहर निकल पडी हो तो तिल वा दाख के कल्क से लेपित कर जिह्वा का भीतर प्रवेश कर दे, यदि अति वमन से आँख फट कर निकल पडी हो तो घृत चुपड कर धीरे २ भीतर को दवावे, यदि जावडा फटे का फटा (खुला ही रह गया हो तो खेदन कर्म करे, नस्य देवे तथा कफ वात हरणकर्त्ता यत्न करे, यदि अति वमन से रुधिर गिरने लगे तो रक्तपित्त पर लिखी हुई चिकित्सा को करे, यदि अति वमन से तृपा आदि उपद्रव हो गये हों तो ऑवला, रसोत, खस, खील, चन्दन और नेत्रवाला को जल मे मथ कर ( मन्थ तैयार कर ) उस में घी, शहद और साड डाल कर पिलावे । ७३
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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