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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५५७ लक्षण --- स्त्री गमन के होने के पश्चात् एक से लेकर पाच दिन के भीतर सुजाख का चिह्न प्रकट होता है, प्रथम इन्द्रिय के पूर्व भाग पर खाज ( खुजली ) चलती है, उस (इन्द्रिय ) का मुख सूज कर लाल हो जाता है और कुछ खुल जाता है तथा उस को दबाने से भीतर से रसी का बूँद निकलता है, उस के पीछे रसी अधिक निकलती खराविया होती मनुष्य जाति में के लिये सब पापों का स्थान और सब दुर्गुणों का एक आश्रय है अर्थात् इसी से सब पाप और सव दुर्गुण उत्पन्न होते हे, इस की भयङ्करता का विचार कर यही कहना पडता है कि यह पाप सब पापों का राजा है, देखो ! दूसरी सब खराबियों को अर्थात्-चोरी, लुच्चाई, ठगाई, खून, वदमाशी, अफीम, भाग, गॉजा और तमाखू आदि हानिकारक पदार्थों के व्यसन, सब रोग और फूटकर निकलने वाली भयकर चेपी महामारियों को इकट्ठा कर तराजू के एक पालने ( पलडे ) मे खखा जावे और दूसरे पालने में हाथ के द्वारा ब्रह्मचर्य भङ्ग की खराबी को रक्खा जावे तथा पीछे दोनों की तुलना ( मुकाविला ) की जाये तो इस एक ही खरावी का पालना दूसरी सब खरावियों के पालने की अपेक्षा अधिक नीचा जावेगा, यद्यपि स्त्री पुरुषों के अयोग्य व्यवहार के द्वारा उत्पन्न हुए भी ब्रह्मचर्यभङ्ग से अनेक खराविया होती हैं परन्तु उन सव खरावियों की अपेक्षा भी अपने हाथ से किये हुए ब्रह्मचर्यभन से तो जो वडी २ हैं उन का स्मरण करके तो हृदय फटता है, देखो ! यह वात विलकुल ही सत्य हैं कि पुरुषत्व (पराक्रम) के नाशरूपी महाखरायी, वीर्य सम्वधी अनेक खराविया और उन से उत्पन्न हुई अनेक अनीतियों का इसी से जन्म होता है, क्योकि मन की निर्बलता से सब पाप और सब दुर्गुण उत्पन्न होते हैं और मन की निर्बलता को जन्म देनेवाला यही निकृष्ट शारीरिक पाप ( ब्रह्मचर्य का भङ्ग अर्थात् माष्टर वेशन) है, सत्य तो यह है कि इस के समान दूसरा कोई भी पाप ससार में नहीं देखा जाता है, यह पाप वर्तमान समय मे बहुत कुछ फैला हुआ है, इस पर भी आश्चर्य और दुख की बात इस पाप से होनेवाले अनयों को जान कर भी इस पाप के आचरण से उत्पन्न हुई खराबियों के देखने से पहिले नही चेतते हैं अर्थात् अनभिज्ञ ( अनजान ) के समान हो कर अँधेरे ही में पड़े रहते हैं और अपने होनहार सन्तान को इस से बचाने का उद्योग नही करते हैं, तात्पर्य यह है कि एक जवान लडका इस पापाचरण से जव तक अपने शरीर की दुर्दशा नहीं कर लेता है तब तक उस के माता पिता सोते ही रहते हैं, परन्तु जब यह पापाचरण जवान मनुष्यों पर पूरे तौर से आक्रमण ( हमला) कर लेता है और उनकी भविष्यत् की सर्व आशाओं को तोड़ डालता है तब हाय २ करते हैं, यदि वाचकवृन्द गम्भीर भाव से विचार कर देखेंगे तो उन को मालूम हो जावेगा कि इस गुप्त पापाचरण से मनुष्यजाति की जैसी २ अवनति और कुदशा होती है वैसी अवनति और कुदशा ऊपर कही हुई चोरी जारी आदि सब खरावियों से भी ( चाहे वे सब इकट्ठी ही क्यों न हों ) कदापि नहीं हो सकती है, यह बात भी प्रकट ही है कि दूसरे सब दुराचरणों से उत्पन्न हुई वा होती हुई खराविया शीघ्र ही विदित हो जाती हैं और स्नेही तथा सहवासी गुणीजन उन से मनुष्य को शीघ्र ही बचा लेते हैं परन्तु यह गुप्त दुराचरण तो अति प्रच्छन्न रीति से अपनी पूरी मार देकर तथा अनेक खराबियों को उत्पन्न कर प्रकट होता है, ( इस पर भी भाश्चर्य तो यह है कि प्रकट होने पर भी अनुभवी वैद्य वा डाक्टर ही इस को पहिचान सकते है ) और पीछे इस पापाचरण से उत्पन्न हुई खराबी और हानियों से बचने का समय नहीं रहता है अर्थात् व्याधि असाध्य हो जाती है । तो यह है कि लोग
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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