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________________ चतुर्थ अध्याय ।। ५५३ ३-कभी २ बच्चे के जन्मसमय में उसके शरीरपर कुछ भी चिन्ह न होकर भी थोड़े ही अठवाड़ो में, महीनों में अथवा कुछ वर्षों के पीछे उस के शरीर में उपदश प्रकट होता है। लक्षण (चिह्न)-उपदश रोग से युक्त माता पिता से उत्पन्न हुआ वालक जन्म से ही दुर्बल, गले हुए हाथ पैरों वाला तथा मुर्दार सा होता है और उस की त्वचा (चमड़ी) में सल पडे हुए होते है, उस की नाक श्लेष्म के समान ( मानों नाक में श्लेष्म अर्थात् जुकाम भरा है इस प्रकार ) बोला करती है और पीछे नितम्ब ( शरीर के मध्य भाग) पर तथा पैरों पर गर्मी के लाल २ चकत्ते निकलते है, मुखपाक हो जाता है तथा ओष्ठ ( ओठ वा होठ) पर चॉदे पड़ जाते हैं। ___ इस प्रकार के (उपदश रोग से युक्त) वालक के जो दॉत निकलते है उन में से आगे के ऊपरले (ऊपर के ) दो चार दाँत चमत्कारिक (चमत्कार से युक्त) होते हैं, वे वूठे होते है, उन के बीच में मार्ग होता है और वे शीघ्र ही गिर जाते है, किन्तु जो स्थिर ( कायम ) रहने वाले दाँत निकलते है वे भी वैसे ही होते है तथा उन के ऊपर एक गड्ढा होता है। चिकित्सा --१-पहिले कह चुके है कि-पारा गर्मी के रोग पर मुख्य औषधि है, इस लिये वारसों की गर्मी पर भी उस का पूरा असर होता है अर्थात् उस का फायदा शीघ्र ही मालूम पड़ जाता है, गर्मी के कारण यदि किसी स्त्री के गर्भ का पात हुआ करता हो और उस को पारे की दवा देकर मुखपाक कराया जावे तो फिर गर्भ के ठहर कर बढ़ने में कुछ भी अड़चल नहीं होती है तथा उस के गर्भ से जो सन्तति उत्पन्न होती है उस के भी गर्मी नहीं होती है, यदि वालक का जन्म होने के पीछे थोड़े दिनों में उस के शरीर पर गर्मी दीख पड़े तो उस बालक की माता को किसी कुशल वैद्य से पारे की दवा दिलानी चाहिये', अथवा यदि वालक कुछ बड़ा हो गया हो तो उस के __१-तात्पर्य यह है कि उपदश का असर तो वालक के शरीर मे पहिले ही से रहता है वह कुछ ही अठवाडों मे, महीनों मे अथवा वर्षों में अपने उद्भव (प्रकट) होने की कारण सामग्री को पाकर प्रकट हो जाता है। २-क्योंकि माता पिता के द्वारा पहुँचा हुभा इस रोग का असर गर्म ही में वालक को दुर्वल आदि ऊपर कहे हुए लक्षणोंवाला बना देता है। ३-वारसा का स्वरूप पहिले लिख चुके है ॥ ४-अर्थात् पारे की दवा के देने से स्त्री के गर्भ का पात नहीं होता है तथा वह गर्भ नियमानुसार पेट में बढ़ता चला जाता है । ५ क्योंकि पारे की दवा के देने से माता ही में गर्मी का विकार शान्त हो जाता है अत वह वालक के शरीर पर असर कैसे कर सकता है। ६-अर्थात् पारे की दवा देने पर भी माता की गर्मी ठीक रीति से शान्त न होवे और वालक पर भी उस का असर पहुँच जावे ॥ ७-कि जिस से आगे को माता की गर्मा का असर वालक पर पड कर उस के लिये भयकारी न हो ॥
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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