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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५३५ ७-यदि फूल चमडी से ढका हुआ हो और भीतर की चाँदी न दीखती हो तो वोएसीक लोशन के पानी की चमडी और फूल के बीच में पिचकारी लगानी चाहिये । ८-यदि प्रसरयुक्त चाँदी हो तो उसपर भी कास्टिक लगा कर पीछे उसपर पोल्टिस बांधनी चाहिये कि जिस से उस के ऊपर का मृत ( मरा हुआ अर्थात् निर्जीव) मांस अलग हो जावे। ९-इन ऊपर कही हुई दवाइयो में से चाहे किसी दवा का प्रयोग किया जावे परन्तु उस के साथ में रोगी को शक्तिप्रद ( ताकत देनेवाली) दवा अवश्य देते रहना चाहिये कि जिस से उस की शक्ति क्षीण (नष्ट ) न होने पावे, शक्ति बनी रहने के लिये टाट आफ आयर्न बहुत अच्छी दवा है, इस लिये पाच से दश ग्रेनतक इस दवा को पानी के साथ दिनभर में तीन बार देते रहना चाहिये। १०-यदि चमडी का भाग सड जाये तो प्रथम उसपर पोल्टिस बॉव कर सड़े हुए भाग को अलग कर देना चाहिये तथा उस के अलग हो जाने के पीछे ऊपर लिखी हुई दवाइयों में से किसी एक दवा को लगाना चौहिये । ११-यदि इन दवाइयों में से किसी दवा से फायदा न हो तो रेड प्रेसीपीटेट का मल्हम, कार्बोलिक तेल, अथवा वोएसिक मल्हम लगाना चाहिये । बद-टाकी के होने से एकतरफ अथवा दोनोंतरफ जाँघ के मूल में जो मोटी गांठ हो जाती है उस को वद कहते है, नरम टाकी के साथ जो बद होती है वह बहुधा पकेविना नहीं रहती है अर्थात् वह अवश्य पकती है तथा उस का दर्द भी बहुत होता है परन्तु कभी २ ऐसा भी होता है कि एक ही गाठ न होकर कई गाठे होकर पक जाती है तथा जाघ के मूल में गड्ढा पड जाता है जिस से रोगी बहुत दिनोंतक चल फिर नहीं सकता है। ___ यह भी स्मरण रहे कि-इन्द्रिय के ऊपर जिस तरफ चॉदी होती है उसी तरफ बद भी होती है और बीच में अथवा दोनों तरफ यदि चाँदी होती है तो दोनो तरफ बद उठती है और वह पक जाती है तथा उस के साथ ज्वर आदि चिह भी मालूम होते है। ___ पहिले कह चुके हैं कि कठिन चॉदी के साथ जो वद होती है वह प्रायः पकती नहीं है, इसी कारण उस में दर्द भी अधिक नहीं होता है। १-क्योंकि काष्टिक के लगाने से चाँदी का स्थान जल जावेगा, पीछे उसपर पोल्टिस वाँधने से वह जला हुआ भाग अर्थात् निर्जीव मास अलग हो जावेगा और नीचे से साफ जगह निकल आवेगी। २-क्योंकि शक्ति के नष्ट हो जाने से इस रोग का वेग वठता है ॥ ३-क्योंकि पोल्टिस को लगाकर सडे हुए मास के अलग किये विना दवा का उपयोग करने से उस (दवा) का असर भीतरतक नहीं पहुँच सकता है किन्तु उस सडे हुए मांस के बीच में आ जाने से दवा का असर अन्दर पहुँचने से रुक जाता है ।
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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