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________________ कमी २५ रह कर फिर होहता है, क्योंकि भारत की संख्या में चतुर्थ अध्याय ॥ ५२३ का दोष उत्पन्न हो जाता है तब ग्रहणी वा संग्रहणी रोग हो जाता है, उक्त रोग में ग्रहणी फच्चे अन्न का ग्रहण करती है तथा कच्चे ही अन्न को निकालती है अर्थात् पेट छूट कर कच्चा ही दस्त हो जाता है, इस रोग में दस्त की संख्या भी नहीं रहती है और न दस्त का कुछ नियम ही रहता है, क्योंकि प्रायः ऐसा देखा जाता है कि-थोड़े दिनोंतक दस्त बन्द रह कर फिर होने लगते हैं, इस के सिवाय कभी २ एकाध दस्त होता है और कभी २ बहुत दस्त होने लगते हैं। इस रोग में मरोड़े के समान पेट में ऐंठन, आमवायु, पेट का कटना, वारंवार दस्त का होना और बद होना, खाये हुए अन्न के पचजानेपर अथवा पचने के समय अफरे का होना तथा भोजन करने से उस अफरे की शान्ति का होना तथा बादी की गांठ की छाती के दर्द की और तिल्ली के रोग की शंका का होना, इत्यादि लक्षण प्रायः देखे जाते है। ___ अनेक समयों में इस रोग में पतला, सूखा, कच्चा, शब्दयुक्त ( आवाज के साथ ) तथा झागोंवाला दस्त होता है, शरीर सूखता जाता है अर्थात् शरीर का खून उडता जाता है, इसकी अन्तिम (आखिरी) अवस्था में शरीर में सूजन हो जाती है और आखिरकार इस रोग के द्वारा मनुष्य बोलता २ मर जाता है। इस रोग के दस्त में प्रायः अनेक रंग का खून और पीप गिरा करता है। चिकित्सा-१-पुरानी संग्रहणी अतिकष्टसाध्य हो जाती है अर्थात् साधारण चिकित्सा से वह कभी नहीं मिट सकती है, इस रोग में रोगी की जठरामि ऐसी खराब हो जाती है कि उस की होजरी किसी प्रकार की भी खुराक को लेकर उसे नहीं पचा . सकती है, अर्थात् उस की होजरी एक छोटे से बच्चे की होजरी से भी अति नाताकत हो जाती है, इस लिये इस रोग से युक्त मनुष्य को हलकी से हलकी खुराक खानी चाहिये। २-संग्रहणी रोग में छाछ सर्वोत्तम खुराक है, क्योंकि यह (छाछ ) दवा और पथ्य दोनों का काम निकालती है, इस लिये दोषों का विचार कर भूनी हुई हींग, जीरा और सेंधा निमक डाल कर इसे पीना चाहिये, परन्तु वह छाछ थर (मलाई) निकाले हुए १-अर्थात् इस रोग में अन्न का परिपाक नहीं होता है । २-अर्थात् वेशुमार दस्त होते हैं। ३-इस रोग मे ये सामान्य से लक्षण लिखे गये हैं इन के सिवाय-दोषविशेष के अनुसार इस रोग में भिन्न २ लक्षण भी होते है, जिन को बुद्धिमान् जन देख कर दोपविशेप का ज्ञान कर सकते हैं अथवा दोपों के अनुसार इस रोग के पृथक् २ लक्षण दूसरे वैद्यक ग्रन्थों में वर्णित हैं वहा देख कर इस विषय का निश्चय कर लेना चाहिये ॥ ४-वढी ही कठिनता से निवृत्त होनेयोग्य ॥ ५-इस लिये इस रोग की चिकित्सा किसी अतिकुशल वैद्य वा डाक्टर से करानी चाहिये। ६-हलकी से हलकी अर्थात् अत्यन्त हलकी ।
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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