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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५११ और व्याधि ( शारीरिक रोग ) सताती ही नहीं है, इत्यादि अनेक बातों से रोग उन के पास तक नहीं आता है, परन्तु सब जानते है कि-हिन्दुस्थानी जनों के कोई भी व्यवहार उन के समान नहीं है, फिर हिन्दुस्थानी जन निषिद्ध (शास्त्र आदि से मना किया हुआ) कार्य कर के दुःखरूपी फल से कैसे वचसकते हैं ? अर्थात् हिन्दुस्थानी जन शरीर को वाधा पहुँचानेवाले कार्यों को करके उन (अग्रेजों) के समान तनदुरुस्ती को कभी नहीं पा सकते है। वर्चमान में यह भी देखा जाता है कि बहुत से आर्य श्रीमान् लोग अंग्रेजों के समान व्यवहार करने में अपना पैर रखते हैं परन्तु उस का ठीक निर्वाह न होने से परिणाम (नतीजा ) यह होता है कि वे बिना मौत आधी ही उम्र में मरते है, क्योंकि प्रथम तो अग्रेजो का सव व्यवहार उन से यथोचित वन नहीं आता है, दूसरे-इस देश की तासीर और जल वायु अग्रेजों के देश से अलग है, इस लिये हिन्दुस्थानियो को उचित है किउन के अनुकरण ( नकल करने ) को छोड कर अपनी प्राचीन प्रथा (रिवाज़) पर ही चलते रहें अर्थात् प्रजापति भगवान् श्री नाभिकुलचन्द्र ने जो दिनचर्या (दिन का व्यवहार), रात्रिचर्या (रात्रि का व्यवहार ) तथा ऋतुचर्या (ऋतु का व्यवहार ) अपने पुत्र हारीत को वतलाई थी (जिस को हम सक्षेप से इसी अध्याय में लिख चुके है ) उस के अनुसार ही व्यवहार करें, क्योंकि उस पर चलना ही उन के लिये कल्याणकारी है, तात्पर्य यह है कि-आर्यावर्त के निवासियों को इस ( आर्यावर्त्त) देश के अनुसार ही अपना पहिराव, भेप, खान, पान तथा चाल चलन रखना चाहिये, अर्थात् भाषा (बोली), भोजन, भेष और भाव, इन चार बातों को अपने देश के अनुसार ही रखना चाहिये, ये ऊपर कही हुई चार वार्ते मुख्यतया ध्यान में रखने की है। ५-मद्य का सेवन नहीं करना चाहिये अर्थात् मद्य को कभी नही पीना चाहिये। ६-भोजन करने के समय में अथवा भोजन करने के पीछे शीघ्र ही अधिक जल नहीं पीना चाहिये तथा बहुत गर्म चाय वा काफी को नहीं पीना चाहिये, यदि कोई पतला पदार्थ पीने में आवे तो वह बहुत गर्म वा बहुत ठंढा नहीं होना चाहिये । १-हिन्दुस्थानी जनों के व्यवहार उन के समान ही नहीं है, यह वात नहीं है किन्तु हिन्दुस्थानियों के सव व्यवहार ठीक उन (अग्रेजों) के विरुद्ध (विपरीत) हैं, फिर ये (हिन्दुस्थानी ) लोग उन के समान आरोग्यता के सुख को कैसे पा सकते है। २-इस का अनुभव पाठकों को वर्तमान में अच्छे प्रकार से हो ही रहा है, इस लिये इस विषय के विवरण करने की कोई आवश्यकता नहीं है। ३-इन चारों वातों को ध्यान में रख कर देश, काल और प्रकृति आदि को विचार कर जो वर्ताव करेगा वही कभी धोखे में नहीं पडेगा ॥ ४-यद्यपि प्रारम्भ में इस से कुछ लाभ सा प्रतीत होता है परन्तु परिणाम मे इस से वटी भारी हानि पहुँचती है, यह सुयोग्य वैद्य और डाक्टरों ने ठीक रीति से परीक्षा कर के निर्धारित किया है ॥ ५-क्योंकि भोजन करने के समय में अथवा भोजन करने के पीछे शीघ्र ही अधिक जल पीने से खाये हुए अन्न का ठीक रीति से पाचन नहीं होता है ।।
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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