SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 507
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४७३ २-सतत-बारह घण्टे के अन्तर से आनेवाले तथा दिन में और रात्रि में दो समय आनेवाले ज्वर को सतत कहते है, इस ज्वर का दोप रक्त (खून ) नामक धातु में रहता है। ३-अन्येशुष्क (एकान्तरा)-यह ज्वर सदा २४ घण्टे के अन्तर से आता है अर्थात् प्रतिदिन एक बार चढता और उतरता है', यह ज्वर मांस नामक धातु में रहता है । ४-तेजरा-यह ज्वर ४८ घण्टे के अन्तर से आता है अर्थात् वीच में एक दिन नहीं आता है, इस को तेजरा कहते है परन्तु इस ज्वर को कोई आचार्य एकान्तर कहते हैं, यह ज्वर मेद नामक धातु में रहता है। ____५-चौथिया-यह ज्वर ७२ घण्टे के अन्तर से आता है अर्थात् बीच में दो दिन न आकर तीसरे दिन आता है, इस को चौथिया ज्वर कहते है, इस का दोप अस्थि ( हाड़) नामक धातु में तथा मज्जा नामक धातु में रहता है। _ इस ज्वर में दोप भिन्न २ घातुओं का आश्रय लेकर रहता है इसलिये इस ज्वर को वैद्यजन रसगत, रक्तगत, इत्यादि नामों से कहते है, इन में पूर्व २ की अपेक्षा उत्तर २ अधिक भयकर होता है , इसी लिये इस अनुक्रम से अस्थि तथा मज्जा धातु में गया हुआ (प्राप्त हुआ ) चौथिया ज्वर अधिक भयङ्कर होता है, इस ज्वर में जब दोष वीर्य में पहुँच जाता है तब प्राणी अवश्य मर जाता है। अब विषमज्वरों की सामान्यतया तथा प्रत्येक के लिये भिन्न २ चिकित्सा लिखते हैं: १-क्योंकि दोष के प्रकोप का समय दिन और रातभर में ( २४ घण्टे में ) दो वार आता है ॥ २-इस में दिन वा रात्रि का नियम नहीं है कि दिन ही में चढे वा रात्रि में ही चढे किन्तु २४ घटे का नियम है ॥ ३-अर्थात् तीसरे दिन आता है, इस में ज्वर के आने का दिन भी ले लिया जाता है अर्थात् जिस दिन आता है उस दिन समेत तीसरे दिन पुन आता है ॥ ४-तीसरे दिन से तात्पर्य यहा पर ज्वर आने के दिन का भी परिगणन कर के चौथे दिन से है, क्योंकि ज्वर आने के दिन का परिगणन कर के ही इस का नाम चातुर्थिक वा चौथिया रक्खा गया है । ५-इस ज्वर में अर्थात् विषमज्वर मे ॥ ६-अर्थात् आश्रय की अपेक्षा से नाम रखते हैं, जैसे-सन्तत को रसगत, सतत को रक्तगत, अन्येशुष्क को मांसगत, तेजरा को मेदोगत तथा चौथिया को मज्जास्थिगत कहते हैं । ___७ अर्थात् सन्तत से सतत, सतत से अन्येद्यष्क, अन्येशुष्क से तेजरा और तेजरे से चौथिया अधिक भयकर होता है। ८-अर्थात् सव की अपेक्षा चौथिया ज्वर अधिक भयकर होता है । ९-सम्पूर्ण विषमज्वर सभिपात से होते हैं परन्तु इन में जो दोष अधिक हो उन में उसी दोष की प्रधानता से चिकित्सा करनी चाहिये, विपमज्वरों में भी देह का ऊपर नीचे से (वमन और विरेचन के द्वारा) शोधन करना चाहिये तथा निग्ध और उष्ण अन्नपानों से इन (विषम ) ज्वरों को जीतना चाहिये ।
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy