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________________ ४७० चैनसम्प्रदामशिक्षा | देखो ! काम लोक सभा डर से पके हुए ज्वर में पिस का कोप होता है और भूतादि के प्रतिबिम्ब के बुखार में भावेश होोसे तीनों दोपका कोप होता है, इत्यादि । भेद तथा लक्षण - १ - विपजन्य (विपसे पैदा होनेवाला) आगन्तुक परविप के खाने से चढ़े हुए उबर में रोगी का मुख काला पड़ जाता है, सुई के चुमाने के समान पीड़ा होती है, अक्ष पर अरुचि, प्यास और मूर्छा होती है, स्थावर बिपसे उत्पन हुए स्वर में दस्त भी होते हैं, क्यों कि निप नीचे को गति करता है तथा मल बादि से मुक्त गमन (उलटी) भी होती है । से --- २ - ओषधिगन्धजन्य ज्वर - किसी सेब तथा दुर्गन्धयुक्त वनस्पति की गन्म हुए ज्वर में मूर्छा, सिर में दर्द तथा कम (उलटी ) होती है। टे - ३ - कामज्वर - भमीष्ट (मिम) श्री भगवा पुरुष की प्राप्ति के न होने से उत्पन्न हुए वर को कामज्वर कहते हैं, इस स्वर में चितकी भस्थिरता (चा), चन्द्रा (ऊम) आस्म, छाती में वर्ष, मरुभि, हाथ पैरों का पेंठना, गल्म्हत ( गलहत्था ) देकर फिक्र का करना, किसी की कही हुई बात का अच्छा न समाना, वरीर का सूखना, मुँह पर पसीने का माना तथा निःश्वास का होना भोटि भि होते हैं । 8- भयम्वर–डर से बढे हुए ज्वर में रोगी मछाप (वभाव ) बहुत करता है । ५ - क्रोधज्वर – कोष से पडे हुए उबर में कम्पन ( फॉपनी) होती है तथा मुख ककुभा रहता है । हँसना, गाना, नाचना, काँपना तथा ६ - भूतामिपज्थर --- इस ज्वर में उद्वेग, अचिन्त्य शक्ति का होना मावि हि होते है । इन के सिवाय क्षतज्वर अर्थात् शरीर में भाग के उगने से उत्पन्न होनेवाला ज्वर, वादम्बर, श्रमम्बर (परिश्रम के करने से उत्पन्न हुआ म्बर) और छेवज्वर ( शरीर के किसी भाग के कटने से उत्पन्न हुआ न्नर ) आविज्वरों का इस आगन्तुक ज्वर में ही समावेश होता है । १- यार में इस ज्वर के सम-भ्रमण नवी के कामज्वर होने पर और क्या निद्य बुद्धि और दे पास का समान होते है ॥ होन्य पीलों का भाना तथा हृदय में दाइ का होना में ३- (मन) कम्पन का बात का कार्य है फिर वह क्योंकि कोष में पिता प्रकोप होता है। (उत्तर) दूसरे दोष को भी शक्ति करता है उसी से कम्पन होता है, मी प्रकोप होता है, अपनी बसेका भी माने और गुड का ब (कम्पन) प्रेम यर में कैसे होता है, एक ये पित्त के प्रकोप के कारण बाव भी कुपित हो जाता है और सेपित का ही प्रकोप होता है यह बात नहीं है किंतु-पाय आचार्य स्तर और शोक से दोनों बात पित और रच को प्रकुपित करनेवाले माझे मये हैं, उस से कम्पन का होना साधारण बात है मे
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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