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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४६५ २ है ( कुपित हो जाते हैं ) वह सन्निपातज्वर कहलाता है, इस ज्वर में प्रायः ये चिह्न होते कि-अकस्मात् क्षण भर में दाह होता है, क्षण भर में शीत लगता है, हाड़ सन्धि और मस्तक में शूल होता है, अश्रुपातयुक्त गदले और लाल तथा फटे से नेत्र हो जाते है ?, कानों में शब्द और पीड़ा होती है, कण्ठ में काटे पड जाते है, तन्द्रा तथा बेहोशी होती है, रोगी अनर्थप्रलाप (व्यर्थ बकवाद ) करता है, खासी, श्वास, अरुचि और भ्रम होता है, जीभ परिदग्धवत् ( जले हुए पदार्थ के समान अर्थात् काली ) और गाय की जीभ के समान खरदरी तथा शिथिल ( लठर ) हो जाती है, पित्त और रुधिर से मिला हुआ कफ थूक में आता है, रोगी शिर को इधर उधर पटकता है, तृषा बहुत लगती है, निद्रा का नाश होता है, हृदय में पीड़ा होती है, पसीना, मूत्र और मल, ये बहुत काल में थोड़े २ उतरते हैं, दोषों के पूर्ण होने से रोगी का देह कृश ( दुबला ) नही होता है, कण्ठ में कफ निरन्तर ( लगातार ) बोलता है, रुधिर से काले और लाल कोठ ( टाटिये अर्थात् बर्र के काठने से उत्पन्न हुए दाफड़ अर्थात् ददोड़े के समान) और चकत्ते होते है. शब्द बहुत मन्द (धीमा) निकलता है, कान, नाक और मुख आदि छिद्रों में पाक ( पकना ) होता है, पेट भारी रहता है तथा वात, पित्त और कफ, इन दोषों का देर में पाक होता है । - १ - अश्रुपातयुक्त अर्थात् आँसुओं की धारा सहित || २-कफ के कारण गदले, पित्त के कारण लाल तथा वायु के कारण फटे से नेत्र होते हैं ॥ ३- (प्रश्न) वात आदि तीन दोप परस्पर विरुद्ध गुणवाले हैं वे सब मिल कर एक ही कार्य सन्निपात को कैसे करते हैं, क्योंकि प्रत्येक दोष परस्पर ( एक दूसरे ) के कार्य का नाशक है, जैसे कि - अभि और जल परस्पर मिलकर समान कार्य को नहीं कर सकते है ( क्योंकि परस्पर विरुद्ध हैं ) इसी प्रकार वात, पित्त और कफ, ये तीनों दोष भी परस्पर विरुद्ध होने से एक विकार को उत्पन्न नहीं कर सकते हैं ? (उत्तर) वात, पित्त और कफ, ये तीनों दोप साथ ही में प्रकट हुए है तथा तीनों बराबर हैं, इस लिये गुणों में परस्पर ( एक दूसरे से ) विरुद्ध होने पर भी अपने २ गुणों से दूसरे का नाश नहीं कर सकते हैं, जैसे कि-सॉप अपने विप से एक दूसरे को नहीं मार सकते हैं, यही समाधान ( जो हमने लिखा है ) दृढवल आचार्य ने किया है, परन्तु इस प्रश्न का उत्तर गदाधर आचार्य ने दूसरे हेतु का आश्रय लेकर दिया है, वह यह है कि- विरुद्ध गुणवाले भी वात आदि दोप सन्निपातावस्था मे दैवेच्छा ( पूर्व जन्म के किये हुए प्राणियों के शुभाशुभ कर्मों के प्रभाव से ) अथवा अपने स्वभाव से ही इकट्ठे रहते हैं तथा एक दूसरे का विघात नहीं करते हैं । ( प्रश्न ) अस्तु - इस बात को तो हम ने मान लिया कि-सन्निपातावस्था मे विरुद्ध गुणवाले हो कर भी तीनों दोप एक दूसरे का विघात नहीं करते है परन्तु यह प्रश्न फिर भी होता हैं कि वात आदि तीनों दोपों के सचय और प्रकोप का काल पृथक् २ है इस लिये वे सब ही एक काल में न तो प्रकट ही हो सकते हैं ( क्योंकि सवय का काल पृथक् २ है ) और न प्रकुपित ही हो सकते हैं ( क्योंकि जब तीनों का सश्चय ही नहीं है फिर प्रकोप कहाँ से हो सकता है ) तो ऐसी दशा में सन्निपात रूप कार्य कैसे हो सकता है ? क्योंकि कार्य का होना कारण के आधीन है । (उत्तर) तुम्हारा यह प्रश्न ठीक नहीं है क्योंकि शरीर में वात आदि दोष स्वभाव से ही विद्यमान हैं, वे (तीनों दोष) अपने ( त्रिदोष) को प्रकट करनेवाले निदान के वल से एक साथ ही प्रकुपित हो जाते है अर्थात् त्रिदोषकर्त्ता मिथ्या आहार और मिथ्या विहार से तीनों ही दोष एक ही काल में कुपित हो जाते हैं और कुपित हो कर सन्निपात रूप कार्य को उत्पन्न कर देते हैं ॥ ५९
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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