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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४४९ ७-गर्भिणी स्त्री के लिये भिन्न २ रोगों की जो खास २ दवा शास्त्रकारों ने लिखी है वही देनी चाहियें, क्योंकि बहुत गर्म दवाइयां तथा दस्तावर और तीक्ष्ण इलाज गर्भ को हानि पहुँचाते है । ८- सब रोगों में सब दवाइया ताजी और नई देनी चाहियें परन्तु वायविडंग, छोटी पीपल, गुड़, धान्य, शहद और घी, ये पदार्थ दवा के काम के लिये एक वर्ष के पुराने लेने चाहियें | ९. - गिलोय, कुडाछाल, अडूसे के पत्ते, विदारीकन्द, सतावर, आसगंध और सौंफ, इत्यादि वनस्पतियों को दवा में गीली ( हरी.) लेना चाहिये तथा इन्हें दूनी नही लेना चाहिये । १० - इन के सिवाय दूसरी वनस्पतिया सूखी लेनी चाहियें, यदि सूखी न मिलें अर्थात् गीली (हरी) मिलें तो लिखे हुए वज़न से दूनी लेनी चाहियें । ११ - जो वृक्ष स्थूल और बड़ा हो उस की जड़ की छाल दवा में मिलानी चाहिये परन्तु छोटे वृक्षों की पतली जड़ ही लेनी चाहिये । १२- तमाम भस्म, तमाम रसायन दवायें तथा सब होते जावें त्यों २ गुणों में बढ़ कर होते हैं ( विशेष की गोलिया एक वर्ष के बाद हीनसत्त्व ( गुणरहित ) हो जाती है, चूर्ण दो महीने के बाद हीनसत्त्व हो जाता है, औषधों के योग से बाद हीनसत्त्व हो जाता है, परन्तु पारा गन्धक दवा में डालने से काष्ठादि रस दवाइया पुरानी . उन का गुण नहीं जाता है । १३ - काथ तथा चूर्ण आदि की बहुत सी दवाइयों में से यदि एक वा दो दवाइया न मिलें तो कोई हरज नहीं है, अथवा इस दशा में उसी के सदृश गुणवाली दूसरी दबाई मिले तो उसे मिला देनी चाहिये तथा नुसखे में एक दो अथवा तीन दवाइया रोग प्रकार के आसव ज्यो २ पुराने गुणकारी होते है ) परन्तु काष्ठादि वना हुआ घी तथा तेल चार महीने के हींगल और बच्छनाग आदि को शुद्ध कर होनेपर भी गुणयुक्त रहती है अर्थात् १- परन्तु साप आदि की वावी, दुष्ट पृथिवी, जलप्राय स्थान, श्मशान, ऊपर भूमि और मार्ग में उत्पन्न हुई ताजी दवाई भी नहीं लेनी चाहिये, तथा कीडों की खाई हुई, अग से जली हुई, शर्दी से मारी हुई, लू लगी हुई, अथवा अन्य किसी प्रकार से दूषित भी दवा नहीं लेनी चाहिये ॥ २ - तात्पर्य यह है कि लम्बी और मोटी जडवाले (वट पीपल आदि) की छाल लेनी चाहिये तथा छोटी जडवाले (कटेरी धमासा आदि) के सर्व अग अर्थात् जड, पत्ता, फूल, फल और शाखा लेवे, परन्तु किन्हीं आचार्यों की यह सम्मति है जो कि ऊपर लिखी है ॥ ३ - कुछ भोपधियों की प्रतिनिधि ओषधिया यहा दिखलाते है-जिन को उनके अभाव मे उपयोग में लाना चाहिये - चित्रक के अभाव मे दन्ती अथवा ओगा का खार, धमासे के अभाव में जवासा, तगर के अभाव मे कूठ, सूर्वा के अभाव में जिंगनी की त्वचा, अहिता के अभाव मे मानकन्द, लक्ष्मणा के अभाव में मोरसिखा, मौरसिरी के अभाव मे लाल कमल अथवा नीला कमल, नीले कमल के अभाव में कमोदनी, चमेली के अभाव में लौंग, आक आदि के दूध के अभाव में आक आदि के पत्तों का रस, पुहकरमूल फूल ५७
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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