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________________ चतुर्थ अध्याय || ४३९ जहा औषधों का वजन न लिखा हो वहा इस परिमाण से लेना चाहिये कि -अरिष्ट के लिये उबालने की दवा ५ सेर, शहद ६ । सेर, गुड़ १२|| सेर और पानी ३२ सेरे, इसी प्रकार आसव के लिये चूर्ण ११ सेर लेना चाहिये तथा शेष पदार्थ ऊपर लिखे अनुसार लेने चाहियें । इन दोनों के पीने की मात्रा ४ तोला है । मद्य - इसे यन्त्र पर चढ़ा कर अर्क -- औषधो को एक दिन अर्क टपकाते हैं, उसे मद्य ( स्पिरिट ) कहते है । भिगाकर यन्त्र पर चढ़ा के भभका खीचते है, उसे अर्क कहते हैं । अवलेह - जिस वस्तु का अवलेह बनाना हो उस का खरस लेना चाहिये, अथवा काढ़ा बना कर उस को छान लेना चाहिये, पीछे उस पानी को धीमी आच से गाढ़ा पड़ने देना चाहिये, फिर उस में शहद गुड़ शक्कर अथवा मिश्री तथा दूसरी दवायें भी मिला देना चाहिये, इस की मात्रा आधे तोले से एक तोले तक है । कल्क - गीली वनस्पति को शिलापर पीस कर अथवा सूखी ओषधि को पानी डाल कर पीस कर लुगदी कर लेनी चाहिये, इस की मात्रा एक तोले की है । काथ --- एक तोले ओषधि में सोलह तोले पानी डालें कर उसे मिट्टी वा कलई के पात्र ( वर्त्तन) में उकालना ( उबालना ) चाहिये, जब अष्टमाश ( आठवा भाग ) शेष रहे तब उसे छान लेना चाहिये, प्रायः उकालने की ओषधि का वजन एक समय के लिये ४ १- परन्तु कई आचार्यों का यह कथन है कि-अरिष्ट मे डालने के लिये प्रक्षेपवस्तु ४० रुपये भर, शहद २०० रुपये भर, गुड ४०० रुपये भर तथा द्रव पदार्थ १०२४ रुपये भर होना चाहिये ॥ २- यह पूर्णअवस्थावाले पुरुष के लिये मात्रा है, किन्तु न्यूनावस्था वाले के लिये मात्रा कम करनी पडती है, जिस का वर्णन आगे किया जावेगा, ( इसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिये ) || ३- यन्त्र कई प्रकार के होते हैं, उन का वर्णन दूसरे वैद्यक प्रन्थों मे देख लेना चाहिये ॥ ४-दयाधर्मवालों के लिये अर्क पीने योग्य अर्थात् भक्ष्य पदार्थ है परन्तु अरिष्ट और आसव अभक्ष्य हैं, क्योंकि जो बाईस प्रकार के अभक्ष्य के पदार्थों के खाने से बचता है उसे ही पूरा दयाधर्म का पालनेवाला समझना चाहिये ॥ ५- जो वस्तु चाटी जावे उसे अवलेह कहते हैं ॥ ६- तात्पर्य यह है कि यदि गीली वनस्पति हो तो उस का स्वरस लेना चाहिये परन्तु यदि सूखी ओषधि - हो तो उस का काढा बना लेना चाहिये ॥ ७- इस को मुसलमान वैद्य ( हकीम ) लऊक कहते हैं तथा संस्कृत में इस का नाम कल्क है ॥ ८- इस को उकाली भी कहते हैं ॥ ९-तात्पर्य यह है कि ओपधि से १६ गुना जल डाला जाता है-परम्तु यह जल का परिमाण १ तोले से लेकर ४ तोले पर्यन्त औषध के लिये समझना चाहिये, चार तोले से उपरान्त कुडव पर्यन्त औषध मे आठगुना जल डालना चाहिये और कुडव से लेकर प्रस्थ ( सेर ) पर्यन्त औषध मे चौगुना ही जल ढालना चाहिये ॥
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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