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________________ ४३६ चैनसम्प्रदामक्षिक्षा ॥ कारण से हुआ है, इसका निश्वय वैसे दूसरे लक्षणों आदि से होता है उसी प्रकार रोगी ने दो तीन दिन पहिले क्या किया था, क्या लाया था, इत्यादि बालों के पूछने से श्रीम ही निमय हो जाता है । बहुत से रोग चिन्ता, भय, क्रोम और कामविकार मादि मन सम्बभी कारणों से भी पैदा होते है और शरीर के लक्षणों से उन का ठीक २ ज्ञान नहीं होता है, इसलिये रोगो में हकीकत के पूछने की बहुत ही आवश्यकता है, उदाहरण के लिये पाठकगण बान सकते हैं कि सिर का दुखना एक साधारण रोग है परन्तु उस के कारण बहुत से हैं, वैसे सिर में गर्मी का होना, दख की कमी, पातु का माना और प्रवर भावि कई कारणों से सिर दुखा करता है, भम सिर दुखने के कारण का ठीक निश्रय न करके यदि दूसरा इलाज किया खाने तो कैसे धाराम हो सकता है ! फिर शिर दुखने के कारणों को तलास करने में मद्यपि नाडीपरीक्षा भी कुछ सहायता देती है परन्तु यदि किसी प्रकार से रोग के कारण का पूर्ण अनुभव हो जाये तो शेष किसी परीक्षा से कोई काम नहीं है मौर रोग के कारण का अनुभव होने में केवल रोगी से सम हाक का पूछना प्रधान साधन है, जैसे देखो ! धिर के दर्द में यदि रोगी से पूछ कर कारण का निश्चय कर लिया बागे कि तेरा सिर किस तरह से और कम से दुस्खक्षा है इत्यादि, इस प्रकार कारण का नियम हो जाने पर इलाज करने से क्षीघ्र ही भाराम हो सकता है, परन्तु कारण का नियम किये बिना चिकित्सा करने से कुछ भी काम नहीं हो सकता है, जैसे देखो ! यदि उमर खिले कारणों में से किसी कारण से चिर दुखता हो और उस कारण को न समझ कर अमोनिमा सुमाया जाये तो उस से मिठकुछ फायदा नहीं हो सकता है, फिर देखो ! छत्र के सभा कान के रोग से भी घिर अत्यन्त दुखने बनाता है, इस बात को भी विरले ही लोग समझते हैं, इसी प्रकार कान के बहने से भी झिर दुखता है, इस बास को रोमी तो स्वम में भी नहीं मान सकता है, हां यदि बैच कान के तुखने की बात को पूछे ममया रोगी अपने आप ही वैच को अम्पल से भासीर तक अपनी सब हकीकत सुनाते समय कान के पहने की बात को भी कह देगे सो कारण का शान्न हो सकता है। बहुत से महान लोग बैस की भारत (प्रतिष्ठा) और परीक्षा सेने के लिये हाथ छम्मा करते हैं और कहते हैं कि-"आप देखो ! नाही में क्या रोग है !" परन्तु ऐसा कभी भूल कर भी नहीं करना चाहिये, किन्तु भाप को ही अपनी सब हकीकत साफ २ क देनी चाहिये, क्योंकि केवल माड़ी के द्वारा ही रोग का नियम कभी नहीं हो सकता है, किन्तु रोग के निश्श्रम के लिये अनेक परीक्षाओं की आवश्यकता होती है, इसी प्रकार नेप को भी चाहिय कि केवल नाड़ी के देखनेका माडम्बर रचकर रोगी को भ्रम में न भीरम से पूछ २ कर रोग की असही पहिचान डा भार न उसे डराने किन्तु उस से
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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