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________________ जैनसम्प्रदामशिक्षा | ४६-पन्वषिकता - इस रोग में वाड़ी से दस्त बहुत फरा आता है । ४७ - अतिजृम्भा - इस रोग में भावी से उबासी भयात् जैमा बहुत आती है। ३८ - मत्युद्गार इस राग में यात्री के कोप से डकारें बहुत आती है । ४९ - अन्यकूजन - इस रोग में बादी के फोप स भीठों में कूजन (कुर २ की आवाज ) वार होती है । ३९२ - ५० - वातप्रवृति - इस रोग में यात्री के जार से अधोवायु (अपान वायु ) बहुत निकलती है। ५१ - स्फुरण -- इस रोग में बादी के चोर से आँख अपना हाथ जावि कोइ भन फरफरता है । ५२ - शिरापूर्ण - इस रोग में बादी से सम नसें और शिरा भर जाती हैं। ५३ - कम्पवायु -- इस रोग में षायु से सम अंग अथवा सिर काँपा करता है । ५० - कार्य - इस रोग में बादी के काप से शरीर प्रतिदिन ( दिन पर दिन ) तुम होता जाता है । ५५-३यामता-स रोग में पादी से शरीर काला पड़ता जाता है । ५६ - प्रलाप --स रोग में बादी से मनुष्य बहुत मकता और भोक्ता रहता है । ५७ - क्षिप्रसूता - इस रोग में बादी से दम २ में (धोबी २ देर में ) पेठान उतरा करती है । १८- निद्रानाश - इस रोग में बादी से नींद नहीं भाती है । ५९ - स्वेदनाश - इस राग में यात्री पर्सन के छिंदी (छेदों) को मन्द कर पसीने को मन्द कर देती है । ६० दुर्यलय -- इस रोग में बावु के कोप से शरीर की शक्ति जाती रहती है। ६१-पलक्षय - इस रोग में बादी के कोपस क्षति का बिक ही नाम हो जाता है। ६२ - शुक्रप्रवृप्ति - इस रोग में यात्री के कोप से शुरू (बीस) बहुत गिरा करता है। ११- शुक्रफाइ - इस रोग में पायु धातु में मिठकर धातु का सुखा देती है। ६४ - शुक्रनाश- इस राग में बावु स धातु का बिलकुल ही नाथ हो जाता है। ६ - अनवस्थितपिप्तता - इस राग में बायु मगन में जाकर विष का अस्थिर कर देती है । ६६ - काठिन्य- इस रोग में वायु के काप से शरीर करा हा जाता है । ६७ - विरमास्यता - इस रोग में बायु काम मुँह म रस का खान विरु नहीं रहता है। ६८-कपाययक्रता- इस राग में गाड़ी काप से मुँह में रस का साथ रहता है।
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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