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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ३७७ अनेक विषय हैं परन्तु यहां पर तो ऊपर कहे हुए विषय का ही सम्बध है, स्त्री विहा मेर इन बातों का विचार रखना अति आवश्यक है कि वयोविचार, रूपगुणविचार, कालविचार, शारीरिक स्थिति, मानसिक स्थिति, पवित्रता और एकपत्नीव्रत, अब इन के विषय सक्षेप से क्रम से वर्णन किया जाता है: १ - वयोविचार - इस विषय में मुख्य बात यही है कि लगभग समान अवस्थावाले स्त्रीपुरुषों का सम्बंध होना चाहिये, अथवा लडकी से लडके की अवस्था ड्योढ़ी होनी चाहिये, वालविवाह की कुचाल बन्द होनी चाहिये, जबतक यह कुचाल बद न हो तबतक समझदार मातापिता को अपनी पुत्रियों को १६ वर्ष की अवस्था के होने के पहिले श्वसुरगृह (सासरे) को नहीं भेजना चाहिये । समान अवस्था का न होना स्त्रीपुरुष के विराग और अप्रीति का कारण होता है और विराग ही इस ससार के व्यापार में शारीरिक अनीति “कार्पोरियलरिग्युलेरिटी” को जन्म देता है । २० से २५ वर्षतक का लडका और १६ वर्ष की लड़की ससारधर्म में प्रवृत्त होने के लिये योग्य गिने जाते है, इस से जितनी अवस्था कम हो उतना ही शारीरिक नीति “कार्पोरियलरिग्युलेरिटी” का भग होना ममझना चाहिये । ससारधर्म के लिये पुरुष के साथ योग होने में लड़की की बहुत न्यून है, यद्यपि हानिविशेष का विचार कर सर्कार ने अपने अवस्था नियत की है परन्तु उस सीमा को क्रम २ से बढा नियत करानी चाहिये | १२ वर्ष की अवस्था नियम में १२ वर्ष की कर १६ वर्षतक लाकर २ - रूपगुणविचार - रूप तथा गुण की असमानता भी अवस्था की असमानता के समान खराबी करती है, क्योंकि इन की समानता के बिना शारीरिक धर्म " कार्पोरियल ला" के पालन में रस (आनन्द) नही उपजता है तथा उस की शारीरिक नीति " कार्पो - रियलरिग्युलेरिटी” के अर्थात् शारीरिक कर्तव्यो के उल्लङ्घन का कारण उत्पन्न होता है । अवस्था, रूप और गुण की योग्यता और समानता का विचार किये विना जो माता पिता अपने सन्तानों के बन्धन लगा देते हैं उस से किसी न किसी प्रकार से शारीरिक धर्म की हानि होती है, जिस का परिणाम ब्रह्मचर्य का मग अर्थात् व्यभिचार है । ३- कालविचार - वैद्यकशास्त्र की आज्ञा है कि- "ऋतौ भार्यामुपेयात्" अर्थात् ऋतुकाल में भार्या के पास जाना चाहिये, क्योंकि स्त्री के गर्भ रहने का काल यही है, ऋतुकाल के दिवसों में से दोनों को जो दिन अनुकूल हो ऐसा एक दिन पसन्द करके १- जिस दिन रजस्वला स्त्री को तुस्राव हो उस दिन से लेकर १६ रात्रितक समय को ऋतु अथवा ऋतुकाल कहते हैं, यह पहिले ही लिख चुके है ॥ r
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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