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________________ 1 1 चतुर्थ अध्याय ॥ ३५९ ४ - सन्तान का विगड़ना-बहुत से रोग ऐसे है जो कि पूर्व क्रम से सन्तानो के हो जाते है अर्थात् माता पिता के रोग बच्चों को हो जाते है, इस प्रकार के रोगों में मुख्य २ ये रोग है-क्षय, दमा, क्षिप्तचिचता ( दीवानापन ), मृगी, गोला, हरस ( मस्सा), सुजाख, गर्मी, आख और कान का रोग तथा कुष्ठ इत्यादि, पूर्वक्रम से सन्तान में होनेवाले बहुत से रोग अनेक समयों में वृद्धि को प्राप्त होकर जब सर्व कुटुम्ब का संहार कर डालते हैं उस समय लोग कहते है कि देखो ! इस कुटुम्ब पर परमेश्वर का कोप हो गया है परन्तु वास्तव में तो परमेश्वर न तो किसी पर कोप करता है और न किसी पर प्रसन्न होता है किन्तु उन २ जीवो के कर्म के योग से वैसा ही सयोग आकर उपस्थित हो जाता है क्योंकि क्षय और क्षिप्तचित्तता रोग की दशा में रहा हुआ जो गर्भ है वह भी क्षय रोगी तथा क्षिप्तचित्त ( पागल ) होता है, यह वैद्यकशास्त्र का नियम है, इसलिये चतुर पुरुषों को इस प्रकार के रोगों की दशा में विवाह करने तथा सन्तान के उत्पन्न करने से दूर रहना चाहिये । किसी २ समय ऐसा भी होता है कि-सन्तान के होनेवाले रोग एक पीढ़ी को छोड़ कर पोते के हो जाते हैं । 1 श्री स सन्तान के होनेवाले रोगों से युक्त बालक यद्यपि दुरुस्त दीखते है परन्तु उन की उस तनदुरुस्ती को कि वे नीरोग है, क्योंकि ऐसे अनेक समयों में प्रायः पहिले तनदेखकर यह नही समझना चाहिये बालकों का शरीर रोग के लायक अथवा रोग के लायक होने की दशा में ही होता है, ज्योही रोग को उत्तेजन देनेवाला कोई कारण बन जाता है। त्यों ही उन के शरीर में शीघ्र ही रोग दिखलाई देने लगता है, यद्यपि सन्तान के होनेवाले रोगों का ज्ञान होने से तथा वचपन में ही योग्य सम्भाल रखने से भी सम्भव है कि उस रोग की बिलकुल जड़ न जावे तो भी मनुष्य का उचित उद्यम उस को कई दजों में कम कर सकता तथा रोक भी सकता है ॥ का नाम शास्त्रानुसार हो, जैसे-यशोदा, सुभद्रा, विमला, सावित्री आदि । ११ - जिस की चाल इस वाहथिनी के तुल्य हो । १२ ~ जो अपने चार गोत्रों में की न हो । १३ - मनस्मृति आदि धर्म शास्त्रों में कन्या के नाम के विषय मे कहा है कि- “नक्षवृक्षनदी नाम्नीं, नान्त्यपर्वतनामिकाम् ॥ न पक्ष्यहिप्रेष्यनाम्नीं, न च मीपणनामिकाम् ॥ १ ॥" अर्थात् कन्या नक्षत्र नामवाली न हो, जैसे- रोहिणी, रेवती इत्यादि, वृक्ष नामवाली न हो, जैसे- चम्पा, तुलसी आदि, नदी नामवाली न हो, जैसे-गंगा, यमुना, सरस्वती आदि अन्त्य ( नीच ) नामवाली न हो, जैसे - चाण्डाली आदि, पर्वत नामवाली न हो, जैसे- विन्ध्याचला, हिमालया आदि, पक्षी नामवाली न हो, जैसे- कोकिला, मैना, इसा आदि, सर्प नामवाली न हो, जैसे - सर्पिणी, नागी, व्याली आदि, प्रेष्य ( नृत्य ) नामवाली न हो, जैसे-दासी किङ्करी आदि, नामवाली न हो, जैसे- भीमा, भयकरी, चण्डिका आदि, क्योकि ये सब नाम ऐसे नाम ही नहीं रखने चाहिये ) । तथा भीषण ( भयानक ) निषिद्ध हैं अतः कन्याओं के
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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