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________________ ३५० जैनसम्प्रदामक्षिक्षा || की सम्भावना को विचार करे अनेक बुद्धिमानों ने वर और कन्या के गुण आदि का बिचार उन के अन्मपत्रादिपर रक्खा अर्थात् ज्योतिषी के द्वारा जन्मपत्र और महमोचर के विचार से उनके गुण आदि का विचार करवा कर सभा किसी मनुष्य को मेन कर बर और कन्या के रूप और भवस्था भावि को जान कर उन ( ज्योतिषी आदि) के कहवेने पर पर भौर कन्या का विवाह करने लगे, बस तब से यही रीति पचन्ति हो गई, जो कि मन भी मायः सर्वत्र देखी जाती है । अब पाठक गण प्रथम सरूमा में लिखे हुए दुद्दिता शब्द के अर्थ से तथा दूसरी संख्या से चौथी संख्या पर्थेन्स लिखी हुई विवाद की वीनों रीतियों से भी ( छौफिक कारणों के द्वारा ) निश्वय कर सकते हैं कि इन ऊपर कहे हुए कारणों से क्या सिद्ध होता है, केवल यही सिद्ध होता है कि निजकुटुम्ब में विवाह का होना सर्वथा निषिद्ध है, क्योंकि - देखो ! दुहिता शब्द का अर्थ यो स्पष्ट कह ही रहा है कि कन्या का निगाह दूर होना चाहिये, अर्थात् अपने ग्राम वा नगर आदि में नहीं होना चाहिये, अन विचारो ! कि-बब कन्या का विवाह अपने ग्राम या नगर आदि में भी करना निषिद्ध है तब मसा निज कुटुम्ब में व्याह के विषय में तो कहना ही क्या है ! इस के अतिरिक विवाह की जो उत्तम मध्यम और भ्रम रूप ऊपर तीन रीतियाँ कही गई है ये भी घोषणा कर साफ २ बतलाती है कि- निब कुटुम्ब में विवाह कयापि नहीं होना चाहिये, देखो ! १-मत् समान समाज और गुम आदि का विचार न करने पर विस्य सभान आदिके कारण कर और को श्रम का ही प्राप्त होषादिहानि की सम्भावना को विचार कर के २- परन्तु महाचोकका विषय है कि पर और कम्पा के माता पिता व्यादि गुरु जब सब इस अवि साधारण तीसरे दर्जे की रीती का भी होमादि से परिक्षा करता है वर्तमान में प्रायः देखा जाता है- श्रीमान् (इम्यपान) को अपने समान अपना अपने से भी अधिक प्रम्यास्पद पर देखते हैं, दूसरी बातों ( काकी से होता होना भारि हानिकारक भी बा बिक ही नहीं बेचते है, इसका कारण यह है कि हम्माद घराने में सम्बद होने से वे संसार में अपनी बासबरी को चाहते है कि बन्धी अमुक बड़े सेठजी है दम श्रीमान् के शिवाय को साधारण बन है उन को तो बड़ों को देखकर वैसा करना ही है अर्थात् मे कम चाहने पे कि हमारी कन्या बडे वर में न जाये बगवा हमारे करके का सम्बण मजे घर में न होने वात् यह है किगुण और कमाचादि सब बातों का विचार कर हम्प की ओर देखने मो बहाँतक कि ज्योतिषी भी बारिक को भी काम कर अपने पक्ष में करने लगे अर्थात् उन से भी अपना ही समीकर बाचे लगे इस के सिवाय मेमादि के कारण जो विवाह के विषय में कम्याविक्रय आदि अनेक हालिया हो चुकी है और होती जाती है उन को पाठक पण अच्छे प्रकार से जानते ही है उम को हम मम्बा विर करना नहीं चाहते है, किन्तु यहाँ पर तो 'विजकुम्प में विवाह कापि नहीं हो इस विषय को हुए प्रसाद वह स्वना व्यावस्यक समक्ष कर कहा पया है। नाश्रा है कि-पालक पन हमारे इस जेल से बचाने गये हो कर
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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