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________________ __३३० जैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ धूम्रपानरत विर्भ, सत्कृत्य ददाति य ॥ दाता स नरकं याति, ग्रामणो प्रामशंकररा॥२॥ मर्थात् बो मनुष्य तमासू पीनेवाले प्रामण का सत्कार कर उस को दान देता है पद (दाता) पुरुष नरक को माता है और वह ग्रामण माम का शूकर (सुमर) होता है ॥ २ ॥ इसी प्रकार शापर वेषक अन्म में लिखा है कि-"पुदि लुम्पति यद्रव्य भदकारि तदुच्यते" अर्थात् मो पदार्थ युद्धि का लोप करता है उस को मदभरी कोते हैं। ___ उपर के कपन से स्पर है कि समाखू मादि का पीना महाहानिकारक है परन्तु पर्समान में लोग शामों से वो मिकुछ मनमिझ है अतः उन फो पदामों के गुण मौर पोप विदित नहीं है, दूसरे-देशमर में इन फम्पसनों का अत्यन्त प्रचार बढ़ रहा है बिस से लोग माय उसी सरफ को झुक जाते हैं, तीसरे-कुव्यसनी लोगों ने मोरे गेगों को बहकाने और फंसाने के लिये इन निकट रस्तुओंके सेवन की प्रठसा में ऐसी २ कपोलफस्पित कवितायें रचाती हैं बितें सुनकर ये मेपारे भोले पुरुष उन वाक्यों को मानो शामीय माक्प समझ कर पहरू बावे भौर फंस जाते हैं अर्थात् उन्हीं निकर पदार्थों का सेवन करने लगते हैं, वेसिये। इन फुल्यसनी लोगों की कविता की तरफ रएि सिरे मौर विचारिये कि इन्हों ने मोले भाले लोगों के फंसाने के लिये कैसी माया रची है।मफीम-गज गाहण शाहण गरा, हाप या देण इमल्ल ॥ मतवाला पौरप पड़े, आयो मीत अमल ॥१॥ १- पपुण्म का पालो ५-ताप या मरमी पाप पुदि का भोप करता। -भागकम राजपूतों में मफीम बी पीअरी बीम समधी जातीमत इस जहरत सन्मन परा होने समी, माह, माईमौर गमी मारि प्रमेक मौक पर सोती, इन भरसरों में रे भेगमपीमबारवे मार मारोगों को पि उन भेयों में भय बारात बाकि किसी भारमी से परे कितनी ही भरसत से परन्तु बम पप हाप से भीम का बए रसी बम समारो गावेपी रागान मेप भाम के नशे मर पाभी तेरे भोर मा परे से इसे मष्णा मानत और इस कामात बयान भी करते हैं पयपि मम ममगार संत पापम मारगार में भोर भय का प्रचार पूर्व में भरिमापि प्राय सर और पामौरपार शेप मर से रियाव भीर मरते मोंकि मेप इस प पीना पचपन से ही पोरे पोतियों की परत सपति में पार र पावे ६ पिर-नोमै सय एमभीर मार मादि मपी वारीको यौव बार नरेनझे प्रतिदिन परादे रहवेसी हिमपी मरिमा F पर सिय कर पतम्मा इस प्रचारमा किसी पनि में परफ्त म नु संपूर्ण भावत में यही पणा रस इसलिये विमानोमन म्म मप भीर समग्र विवि प्रदिनार र दन इम्पसना मेरा
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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