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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २४५ सकता है, देखो ! जो लोग दूध से वर्षों तक निर्वाह कर लेते है उस का कारण यही है कि-दूध में यथावश्यक खार का भाग मौजूद है, खान पान में नमक स्वाद और रुचि को पैदा करता है तथा हाड़ों को मज़बूत करता है । नमक में यह अवगुण भी है कि नमक तथा खार का स्वभाव वस्तु के सड़ाने अथवा गलाने का है, इसलिये परिमाण से अधिक नमक का सेवन करने से वह शरीर के धातुओंको गला कर विगाड देता है, बहुत से मनुष्यो को यह शौक पड जाता है कि वे भोजन की सब चीजो में नमक अधिक खाते है परन्तु अन्त में इस से हानि होती है । गहू बाजरी और दूध आदि चीजो में यथावश्यक थोड़ा २ खार कुदरती होता है और दाल तथा शाक आदि पदार्थों में ऊपर से डालने से नमक का यथावश्यक भाग पूरा होता है । हम सब लोगो में क्षार वाले पदार्थ सदा अधिक खाये जाते है जैसे- दाल, शाक, चटनी, राइता, पापड़, खीचिया और अचार आदि, इन सब पदार्थों में नमक होता है इस लिये सब का थोडा २ भाग मिल कर यथावश्यक भाग पूरा हो जाता है, खार वा नमक के अधिक खाने से शरीरमें गर्मी, शरीर का टूटना और धातु का गिरना आदि वि कार मालूम होने लगते हैं । नमक वा खार को भेदक ( तोडनेवाला ) जानकर बहुत से मूर्ख वैद्य तापतिल्ली आदि पेट की गाठ को मिटाने के लिये बीमारो को अधिक खार खिला देते है उस का नतीजा आगे बहुत बुरा होता है, प्रायः पुरुषों का पुरुषत्व जो नष्ट होता है उस में मुख्य हेतु बहुधा खार का अधिक सेवन ही सिद्ध होता है, इस लिये यह बात सदा खयाल में रखनी चाहिये कि अधिक खार का सेवन वीर्य को नष्ट कर देता है, अतः सब को परिमित ही खार का सेवन करना चाहिये || अब संक्षेप से सब प्रकार के खार और नमकों के गुण दिखलाये जाते है: सेंधा नमक -मीठा, अग्निदीपक, पाचन, लघु, स्निग्ध, रोचक, शीतल, बलकारक, सूक्ष्म, नेत्रों को हितकारी और त्रिदोषनाशक है ॥ सांभर नमक - इलका, वातनाशक, अतिउष्ण, भेदक, पित्तकारक, तीक्ष्णोष्ण, सूक्ष्म और अभिष्यन्दी है तथा पचने के समय चरपरा है ॥ समुद्र नमक --- पाक में मधुर, कुछ कटु, मधुर, भारी, दीपन, भेदी अविदाही, कफवर्धक, वायुनाशक, तिक्त, अरूक्ष और अत्यन्त शीतोष्ण नही है | १ - अत्यन्त सेवन करने नमक मनुष्य को अन्धा कर देता है | २- यह राजपूताने की साभर झील से पैदा होता है इसी लिये इस का यह नाम पड़ा है | ३ - यह नमक समुद्र के जल से बनाया जाता है ॥
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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