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________________ २४१ चतुर्थ अध्याय ॥ उमदा और सफाई के साथ चीनी बनाई जाती है कि उस का यहा एक दाना भी नहीं आता है क्योंकि वह एक प्रकार की मिश्री होती है और वहां पर वह इतनी महंगी विकती है कि उस के यहां आने में गुञ्जाइश ही नहीं है, इस के सिवाय यह बात भी है कि यदि वहा के लोग इस चीनी का सेवन भी करें तो भी उन को इस से कुछ भी हानि नहीं पहुँच सकती है, क्योंकि-विलायत की हवा इतनी शर्द है कि वहा मद्य आदि अत्युप्ण पदार्थों का विशेष सेवन करने पर भी उन (मद्य आदि) की गर्मी का कुछ भी असर नहीं होता है तो भला वहा चीनी की गर्मी का क्या अमर हो सकता है, किन्तु भारत वर्ष के समान तो वहा चीनी का सेवन लोग करते भी नहीं है, केवल चाय आदि में ही उस का उपयोग होता है, खाली चीनी का या उस के बने हुए पदार्थों का जिसप्रकार भारतवर्षीय लोग सेवन करते है उस प्रकार वहां के लोग नही करते है और न उन का यह प्रतिदिन का खाद्य और पौष्टिक पदार्थ ही है, इसलिये इस का वहा कोई परिणाम नहीं होता है, यदि भारतवर्ष के समान इस का बुरा परिणाम वहा भी होता तो अवश्य अबतक वहा इस के कारखाने बद हो गये होते, वहा प्लेग भी इसी लिये नहीं होता है कि वह देश यहा के शहर और गाँव की अपेक्षा बहुत स्वच्छ और हवादार है, वहा के लोग एकचित्त है, परस्पर सहायक है, देशहितैपी है तथा श्रीमान् है । इस बात का अनुभव तो प्राय. सब को होही चुका है कि-हिन्दुस्तान में प्लेग से दूषित स्थान में रहने पर भी कोई भी यूरोपियन आजतक नही मरा, इसी प्रकार श्रीमान् लोग भी प्रायः नहीं मरते है, परन्तु हिन्दुस्थान के सामान्य लोग विविधचित्त, परस्पर निःसहाय और देश के अहित हैं, इसलिये आजकल जितने बुरे पदार्थ, बुरे प्रचार और बुरी बातें हैं उन सबों ने ही इस अभागे भारत पर ही आक्रमण किया है। __ अब अन्त में हम को सिर्फ इतना ही कहना है कि अपने हित का विचार प्रत्येक भारतवासी को करके अपने धर्म और शरीर का सरक्षण करना चाहिये, यह अपवित्र चीनी आर्यों के खाने योग्य नहीं है, इसलिये इस का त्याग करना चाहिये, देखो! सरल स्वभाव और मास मद्य के त्यागी को आर्य कहते है तथा उन ( आर्यों ) के रहने के स्थान को आर्यावर्च कहते हैं, इस भरतक्षेत्र में साढ़े पच्चीस देश आर्यों के हैं, गगा सिन्धुके बीच में-उत्तर में पिशोर, दक्षिण में समुद्र काठा तक २४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, ९ नारायण, ९ वलदेव, ९ प्रतिनारायण, ११ रुद्र और ९ नारद आदि उत्तम पुरुष इसी आर्यावर्त में जन्म लेते है, इसलिये ऐसे पवित्र देश के निवासी महर्षियों के सन्तान आर्य १-मुक्ति को तो सव ही मनुष्य क्षेत्रों से प्राणी जाता है, लन्दन और अमेरिका तक सूत्रकार के कथन से भरतक्षेत्र माना जा सकता है, देखो । अमेरिका जैन सस्कृत रामायण (रामचरित्र) के कथनानुसार पाताल लका ही है, यह विद्याधरों की वस्ती थी तथा रावण ने वहीं जन्म लिया था ॥
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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