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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २३३ देशी अञ्जीर को गूलर कहते है, यह प्रमेह को मिटाता है परन्तु इस में छोटे २ जीव होते हैं इस लिये इस को नही खाना चाहिये || असली अञ्जीर काबुल में होती है तथा उस को मुसलमान हकीम वीमारों को बहुत खिलाया करते है | इमली - कच्ची इमली के फल अभक्ष्य है इसलिये उन को कभी उपयोग में नही लाना चाहिये क्योंकि उपयोग में लाने से वे पेट में दाह रक्तपित्त और आम आदि अनेक रोगों को उत्पन्न करते है । पकी इमली - वायु रोग में और शूल रोग में फायदेमन्द है, यह बहुत ठंढी होने के कारण शरीर के साधों ( सन्धियों ) को जकड देती है, नसो को ढीला कर देती है इस लिये इस को सदा नहीं खाना चाहिये । चीनापट्टन, द्रविड, कर्णाटक तथा तैलग देशवासी लोग इस के रस में मिर्च, मसाला, अरहर (तूर ) की दाल का पानी और चावलों का माड डाल कर उस को गर्म कर ( उबाल कर ) भात के साथ नित्य दोनों वक्त खाते है, इसी प्रकार अभ्यास पड़ जाने से गर्म देशो में और गर्म ऋतु में भी बहुत से लोग तथा गुजराती लोग भी दाल और शाकादि में इस को डाल कर खाते है तथा गुजराती लोग गुड़ डाल कर हमेशा इस की कढ़ी बना कर भी खाते है, हैदरावाद आदि नगरो में बीमार लोग भी इमली का कट्ट खाते हैं, इसी प्रकार पूर्व देशवाले लोग अमचुर की खटाई डाल कर माडिया बना कर सलोनी दाल और भात के साथ खाते है परन्तु निर्भय होकर अधिक इमली और अमचुर आदि खटाई खाना अच्छा नहीं है किन्तु ऋतु तासीर रोग और अनुपान का विचार कर इस का उपयोग करना उचित है क्योंकि अधिक खटाई हानि करती है । नई इमली की अपेक्षा एक वर्ष की पुरानी इमली अच्छी होती है उस के नमक लगा कर रखना चाहिये जिस से वह खराब न हो । इमली के शर्वत को मारवाड़ आदि देशों में अक्षयतृतीया के दिन बहुत से लोग बनाकर काम में लाते है यह ऋतु के अनुकूल है । इमली को भिगोकर उस के गूदे में नमक डाल कर पैरो के तलवों और हथेलियों में मसलने से लगी हुई लू शीघ्र ही मिट जाती है । १ - इसी प्रकार वड और पीपल आदि वृक्षों फल भी जैन सिद्धान्त मे अभक्ष्य लिसे है, क्योंकि इन के फलों में भी जन्तु होते हैं, यदि इस प्रकार के फलों का सेवन किया जावे तो वे पेट में जाकर अनेक रोगों के कारण हो जाते हैं | २ - इस को अमली, ऑवली तथा पूर्व में चिया और ककोना भी कहते हैं ॥ ३- देखो किसी का वचन है कि - "गया मर्द जो खाय खटाई । गई नारि जो साय मिठाई ॥ गई हाट जॅह मँडी हवाई, गया वृक्ष जँह बगुला बैठा, गया गेह जॅह मोडा ( वर्त्त साधु ) पैठा ॥ १ ॥ ३०
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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