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________________ २२१ जैनसम्प्रदायशिक्षा॥ पाता हो) हो यह स्वादु वही कहलाता है, यह-श्री मेद मा फफको पैदा पसार परन्तु वायु को हरता है, रकपिच में भी फायदा करता है ।। स्वामम्ल-जो दही सवा और मीठा हो, खून जमा हुमा हो, साने में मोदी सी तुर्सी वेसा हो उस को सादम्ल वही कहते हैं, यह-मध्यम गुणवाग है ॥ अम्ल-मिस यही में मिठास मिठकर न हो समा सट्टा लाव प्रकट मासूम देता हो उस को अम्ल वही कहते हैं, मा-यपपि ममि को तो मदीप्त करता है परन्त पित कफ और खून को बढ़ाता है मौर निगारसा है ॥ ___ अत्यम्ल-निस दही के खाने से दात प से सावें (सो पर जाने के परम जिन से रोटी आदि भी ठीक रीति से न साई जा सके ऐसे हो बा), रोमाय होने मगे (रोंगटे खड़े हो जानें, ) अत्यन्त ही सघ हो, कण्ठ में बस्न हो नाने उसको मत्यम्स यही कहते हैं, यह वही मी पपपि अमि में प्रदीप्त करता है परन्तु पित्त भोर रक्त को बहुत ही विगारता है। इन पांचों प्रकार के पहियों में से सावम्म वही सब से भच्छा होता है ।। उपयोग-गर्म किये हुए वूप में ऑपन देकर बो वही मनसा है पाको परे जमाये हुए वही की अपेक्षा अधिक गुणकारी है, क्योंकि वह वही सचिफ पिच बोर वायु को मिटानेवाला सया पातुओं को ताकत देनेवाला है। ___ मई निकाय हुमा दही पसको रोकता है, ठंग है, वायु को उत्पल करता, हलका है, माही है और ममि को प्रदीप्त करता है, इससिमे ऐसा वही पुराने मरोगे, महणी मौर दस्त रोग में हितकारी है। परे से मना हुमा वही बहुत खिग्ध, वायुदर्ता, कफ का उत्पन्न करनेवाला, भारी, शशिवायफ पुरिभरफ मौर रुनिकारक है सबा मीठा होने से या पित्त को मी अधिक नहीं बढ़ाता है, यह गुण उस दही कहे मिसे कपड़े में पाप कर उस का पानी टपा दिया गया हो, ऐसे (पानी टपकामे हुए) दही को मिमी मिसा कर खाने से पर प्यास, पित, रकविधर तया वाह को मिटाणारे। गुरु गएकर साया हुषा दही भायु को मिटाता है, पुतिकर्ण तथा मारी है। वैषक शास्त्र और धर्मशास्त्र रात्रि को सपपि सब ही मोजनों की मनाई करते हैं परन्तु उस में भी वही साने की तो पिसकरही मनाई की है क्योकि उपयोगी पवायों को साथ में मिल कर मी रात्रि को पही के खाने से जनक प्रकार के महा मयंकर रोग उत्पन होते है, इस म्मेि रात्रि को वही का मोबन कमी नहीं करना चाहिमे तमा निम २ मतभों में दही का सामा निषिद्ध है उम २ भातुमा में भी वही नहीं सामा पाहिये ।
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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